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अरण्यमित्रा

Aranyamitra

प्रमिला शंकर

प्रमिला शंकर

अरण्यमित्रा

प्रमिला शंकर

और अधिकप्रमिला शंकर

    उसकी पंचवटी में भी सीमाएँ तय थीं

    सीमाओं में स्वच्छंद विचरण

    संभव नहीं था

    एकदम निस्संगता

    प्रकृति से संबंध-विच्छेद

    नहीं संभव हो पाया उससे

    प्रकृति विपद की

    संगी होती

    तो सीमा का लंघन भी

    होता कदाचित्

    अरण्यमित्रा स्वच्छंद घूमी

    पाकर अभय एकांत में

    बिना मालिन्य अपनी लय में

    उजाले धीमे पड़ गए

    उस एक दिन में

    कठिनतम परिस्थितियों में

    आक्षेप अभियोग लगे

    उसकी लज्जा पर प्रश्न उठे

    उत्तर में उसकी

    गोपनीय व्यथा

    उसका प्रायश्चित

    आमरण चला

    बोझ का अंत नहीं होता

    सुख पर दुख भारी पड़ा...

    मुग्ध दृष्टि डूब गई थी

    कहीं गहरे पानी के सोते में

    घायल दृष्टि पीछा करती रही

    घाव कुरेदे गए

    प्रीत छूट गई थी कहीं पीछे

    व्यंग्य बींधता रहा...!

    डूबने के लिए तो थी

    तब भी समीप ही

    भागीरथी

    पर क्यों?

    बिना दोष लांछना कैसी?

    एकांत को साध लिया उसने

    स्वयं को सँवार लिया

    सम्मानजनक

    रूपांतर कर प्रिया से

    जननी बनी निर्मलमना

    देवी नहीं पर

    मानवी बनने की

    चाह में वह लौट आना

    चाहती है...

    धरा से क्षितिज तक अंकित हैं

    उसके उज्ज्वल धवल पगचिह्न...!!

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रमिला शंकर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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