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अपने पदचिह्न के पास

apne padchihn ke pas

अनुवाद : सच्चिदानंद दास

प्रवासिनी महाकुड़

प्रवासिनी महाकुड़

अपने पदचिह्न के पास

प्रवासिनी महाकुड़

और अधिकप्रवासिनी महाकुड़

    नहीं किसी से कोई शिकायत—

    भाग्य, भवितव्य,

    ईश्वर, अपदेवता...

    पुरुष के ख़िलाफ़ भी नहीं।

    हाँ कभी-कभार फिसल गई है

    अपनी बेवक़ूफ़ी से,

    तारों और चाँद के साथ जब वह

    बतियाती मध्यरात्रि में—

    क्योंकि रात के आवेदन के समक्ष,

    मर जाता है उसका...

    बेरहम अनुभूति का जीवन।

    कभी नहीं जुड़ी

    नारीमुक्ति के मोर्चे से

    नहीं लगाए नारे प्लॉकार्ड लेकर—

    अपनी माँगे मनवाने;

    क्योंकि वह जानती है,

    मुक्ति जुलूस में नहीं—

    है तुम्हारे ख़िलाफ़त से...

    साहस की पराकाष्ठा में।

    कभी आसक्ति नहीं दिखाई

    मंगलसूत्र, चूड़ी, पाजेब,

    सुदशाव्रत, लक्ष्मीपूजा—

    अथवा अलता की धार के लिए;

    नारी की ये तमाम प्रिय चीजें...

    पर उसे प्रिय हैं अंतस के आँसू

    और आँसू की कविता।

    उसके अनुभव—

    उसके तकिये और

    दो पलक आँसू से उतना ही जुड़े हैं,

    जितना कि उसके दुःख उभरते हैं मुख पर।

    वह अभिव्यक्त स्पष्ट

    होती है कविता में,

    स्पष्ट रहती है अपने फैसले में—

    किसी के ख़िलाफ़ कहने को...

    कुछ नहीं उसके पास।

    क्योंकि वह ऐसी एक सभा है

    जो मोर्चे में नहीं होती,

    सुहाग में नहीं होती,

    होती है शर्वरी में—

    सिर्फ़ शोक भरे जीवन को लेकर,

    आश्र्विन की शेफाली की तरह...

    झड़ती रहती है

    अपने ही पदचिह्नों के पास।

    स्रोत :
    • पुस्तक : समकालीन ओड़िया कविता (पृष्ठ 99)
    • रचनाकार : गुरु महांति
    • प्रकाशन : भारतीय साहित्य केंद्र
    • संस्करण : 2013

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