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अपिशुनता

apishunta

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

तिरुवल्लुवर

अपिशुनता

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    181

    नाम लेगा धर्म का, करे अधर्मिक काम।

    फिर भी अच्छा यदि वही, पाए अपिशुन नाम॥

    182

    नास्तिवाद कर धर्म प्रति, करता पाप अखण्ड।

    उससे बदतर पिशुनता, सम्मुख हँस पाखण्ड॥

    183

    चुगली खा कर क्या जिया, चापलूस हो साथ।

    भला, मृत्यु हो, तो लगे, शास्त्र-उक्त फल हाथ॥

    184

    कोई मुँह पर ही कहे, यद्यपि निर्दय बात।

    कहो पीठ पीछे नहीं, जो सुचिंतित बात॥

    185

    प्रवचन-लीन सुधर्म के, हृदय धर्म से हीन।

    भण्डा इसका फोड़ दे, पैशुन्य ही मलीन॥

    186

    परदूषक यदि तू बना, तुझमें हैं जो दोष।

    उनमें चुन सबसे बुरे, वह करता है घोष॥

    187

    जो करते नहिं मित्रता, मधुर वचन हँस बोल।

    अलग करावें बन्धु को, परोक्ष में कटु बोल॥

    188

    मित्रों के भी दोष का, घोषण जिनका धर्म।

    जाने अन्यों के प्रति, क्या-क्या करें कुकर्म॥

    189

    क्षमाशीलता धर्म है, यों करके सुविचार।

    क्या ढोती है भूमि भी, चुगलखोर का भार॥

    190

    परछिद्रान्वेषण सदृश, यदि देखे निज दोष।

    तोअविनाशी जीव का, क्यों हो दुख से शोष॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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