कुछ ख़ास नहीं बदलने वाला
जो मैं छोड़ आऊँ
कुछ अधधुले जले बर्तन
खुले नल के नीचे सिंक में यूँ ही
गंदे कपड़े पड़े रहें वाशिंग मशीन में
एक दो तीन तीन दिनों तक
नहीं कुछ नहीं बदलने वाला
जो बारिश में भीगते रहें सूखे कपड़े
सूखते रहें वहीं रस्सी पर पड़े-पड़े
रोटियाँ अकड़ जाए खुले कैसरॉल में
गैस पर चढ़ा दूध उबल-उबलकर नीचे फ़र्श तक फैलता रहे
और दरवाज़े पर स्विपर बजाता रहे कॉलबेल लगातार
पंखे बल्ब यूँ ही फ़िज़ूल जलते रहें
चलती रहे फ़ुल वॉल्यूम में टी.वी.
कबूतरों का इंतज़ार बना रह जाए
पड़ा रह जाए डिब्बे में उनका देना
गिरता रहे धूप में झुलस कर तुलसी का मंज़र
और बस ऐसे ही
एक उगता हुआ दिन ढलती हुई शाम में बदल जाए
हाँ, कुछ ख़ास नहीं बदलने वाला
जो अपने आस-पास के हर दृश्य में अनुपस्थित हो जाऊँ मैं
अव्यक्त रह जाऊँ मुझे संदर्भित कहे सुने जाने वाले हर शब्द में
भले ही अनदेखे रह जाए सब सपने
या कि फिर से अधूरी छूट जाए बच्चन की आत्मकथा
जालों में अटके पड़े मकड़ों
और छिपकली की कटी दुम को हिलता देखकर
चाहे कितना ही चीख़ें-चिल्लाएँ दोनों बच्चे
मैं बस सोती रहूँ अपनी नींद में
इन सबसे होकर बेख़बर
और अपनी दोनों आँखों को फाड़े
बेबस से देखते रहें घर के मंदिर में बैठे ईश्वर
मेरे पीठ पीछे फैली सारी सिलवटों को...
- रचनाकार : स्मिता सिन्हा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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