ख़बर हुई न हुई और
भभूत वर्ण के अछिद्र बादलों से छा गया पूरा यह आकाश।
धूप नहीं और न छाया
नहीं थी सांधेय रंगों की माया
पर्ण के दोनों तरफ़ सम रहता अभंग उजाला।
गतिशांत लगता अब बादल
तंद्रिल और नीरव :
हवा में अचल पवन
एकल बिंदु का कहीं बहना।
भूमि की धूलि और तृण, पात, मेरा उत्तरीय सब ही अकम्प
पलक-विहीन जैसे आँख,
केवल फैलाकर निज पाँख
अंतरिक्ष में रेखा खींचकर श्यामल तैरते रहते विहंग।
तरल
सरल
तैरते अचल विहंग।
- पुस्तक : साम्प्रत मैं चिरन्तन (पृष्ठ 23)
- संपादक : रघुवीर चौधरी
- रचनाकार : राजेंद्र शाह
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 2004
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