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अंतिम आलाप

antim alap

राकेश कुमार मिश्र

और अधिकराकेश कुमार मिश्र

    ज़िंदगी के इस पड़ाव पर

    जवानी अतीत का पहाड़ लगती है

    अपने बुढ़ापे को किसी खुली किताब की तरह

    पढ़ने का मन करता है

    छोटी-छोटी चीज़ों को भूलना आम बात हो गई है

    नज़र हो गई है इस हद तक कमज़ोर

    कि अपना नाम तक नहीं पढ़ पाता

    घंटों बैठे चिड़ियों को देखता रहता हूँ

    अब चींटियों को अपने बहुत क़रीब पाता हूँ

    अपनी हथेलियों को देखते हुए

    किसी आदि मानव की याद आती है

    पैर भी लगते हैं इतने पुराने

    जैसे ये कभी भी काम करना बंद कर सकते हैं

    अपना ही शरीर किसी पुराने बक्से की तरह लगता है

    जिसमें अथाह टूटी-फूटी स्मृतियाँ रखी हैं

    चार साल से बेटे का फ़ोन तक नहीं आया

    बेटी कभी-कभार जाती है

    पत्नी अगर सपने में कभी दिख जाए तो

    अचानक से अपनी उम्र भूल जाता हूँ

    अख़बारों को छूने का मन नहीं करता

    डायरी लिखने की आदत छूट गई है

    पुराने पत्रों को छूते हुए डर लगता है

    किताबों को पढ़ना अब भी अच्छा लगता है

    लेकिन अब वे ईंधन का काम नहीं करतीं

    मुझे कैंसर नहीं है

    गठिया भी नहीं

    पर मैं मर रहा हूँ

    रोज़

    हर रोज़।

    स्रोत :
    • रचनाकार : राकेश कुमार मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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