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अंत में सूत्रधार का वक्तव्य

ant mein sutradhar ka waktawy

विजय देव नारायण साही

विजय देव नारायण साही

अंत में सूत्रधार का वक्तव्य

विजय देव नारायण साही

और अधिकविजय देव नारायण साही

    देखा आपने?

    अभी-अभी आप के सामने से एक औरत गुज़री

    उसने छत की ओर अपनी मुट्ठियाँ उछालीं

    कठपुतलियों की डोरियाँ खींचने की तरह

    उसने उँगलियाँ नचाईं

    और इस बीच उसके मुँह से लगातार

    कड़वे और शर्मनाक शब्दों की धारा बहती रही

    हम आप सब इस तमाशे को देखते रहे

    हममें से किसी ने कुछ कहा

    उसकी ज़बान पकड़ी—

    आख़िर ऐसा क्यों हुआ?

    गहरी नफ़रत में शायद सम्मोहन का जादू होता है

    जब तक वह बोलती रही

    हम उसी सम्मोहन में डूबे रहे

    जैसे उसने हमें एक ऐसी दुनिया में पहुँचा

    दिया हो

    जहाँ पहुँचना हमारे लिए ज़रूरी हो

    आख़िर ऐसा क्यों हुआ?

    आप अपनी बाँहों की रोमावली को छू कर देखें

    क्या आपमें कोई फ़र्क़ तो नहीं पैदा हो गया है?

    आप अंगड़ाई ले कर देखें

    आँखों को सहलाएँ

    खड़े होकर आस्तीनों की गर्द झाड़ दें

    आप की आस्तीने साफ़ हैं

    त्वचा नर्म हैं

    रोमावली मुलायम है

    जैसी हर शरीफ़ आदमी की होनी चाहिए

    सम्मोहन टूटने के बाद आप सोच रहे हैं

    कि आप वही हैं

    जो आप घर से चले थे

    आपकी तरफ़ से कोई और

    नफ़रत की उस आकर्षक दुनिया में चला

    गया था—

    आख़िर ऐसा क्यों हुआ?

    एक और बात शायद आपने देखी होगी

    मेरा इशारा उसी औरत की ओर है

    जो अभी आपके सामने से गुज़री

    आख़िरी गालियाँ बकते-बकते

    उसकी आँखें सूज गई थीं

    उसके ओंठ टेढ़े हो गए थे

    लेकिन धीरे-धीरे उसका शरीर

    निराकार होता गया

    पहले उसके पैर ग़ायब हुए फिर

    हाथ फिर धड़

    यहाँ तक कि कुछ देर वह केवल पसलियों और मुँह के सहारे

    इस तमाम माहौल को कोसती रही

    आख़िरकार सब कुछ काफ़ूर की तरह

    उड़ गया

    सूजी हुई आँखें भी ग़ायब हो गईं।

    देखा आपने?

    इतने बड़े विशाल कक्ष में

    इतनी देर तक सुई गिरने की आवाज़ भी नहीं हुई

    आप सब बुत की तरह देखते रहे

    चारों ओर दहशत भरा सन्नाटा छा गया।

    आख़िर ऐसा क्यों हुआ?

    शायद गहरी नफ़रत से सम्मोहन उपजता है

    शायद सम्मोहन से दहशत

    और दहशत से सन्नाटा उपजता है

    तब वह समय आता है

    जब शरीफ़ आदमी यह नहीं सोचता

    कि क्या हो रहा है

    सिर्फ़ इतना ही सोचता है

    कि आगे क्या होगा।

    तमाशबीन सज्जनों,

    नाटक ख़त्म हो गया है।

    अब इस कक्ष के दरवाज़े खोल दिए जाएँगे

    आप सब इस दहशत के बारे में

    दबी ज़ुबान बातें करते

    उस ग़ायब औरत को भुलाने की कोशिश करते

    घर चले जाएँगे।

    लेकिन मेहरबान सज्जनों!

    बाहर जाने के पहले

    कृपया अपने को टटोल कर

    अच्छी तरह देख लें

    कहीं ऐसा तो नहीं हुआ नाटक के दौरान

    कि आप ख़ुद काफ़ूर की तरह ग़ायब हो गए हैं।

    और अब जो आप की तरफ़ से घर वापस जा रहा है।

    वह नहीं है जो यहाँ आया था।

    उपस्थित या अनुपस्थिति सज्जनों

    जवाब देने की जल्दी कीजिए

    घर जा कर

    मेरी तरह देर तक पूछते रहिए

    आख़िर ऐसा क्यों हुआ?

    स्रोत :
    • पुस्तक : साखी (पृष्ठ 91)
    • रचनाकार : विजय देव नारायण साही
    • प्रकाशन : सातवाहन
    • संस्करण : 1983

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