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आँख खोलो तो अँधेरा आँख मींचो तो उजाला

ankh kholo to andhera ankh mincho to ujala

जावेद आलम ख़ान

जावेद आलम ख़ान

आँख खोलो तो अँधेरा आँख मींचो तो उजाला

जावेद आलम ख़ान

और अधिकजावेद आलम ख़ान

    जीवन

    भ्रम और श्रम से जन्मी परिस्थितियों का कोलाज है

    जम्हूरियत

    असहमति के शव पर रखी वार्ता टेबल है

    जिसके इर्द-गिर्द लगी कुर्सियों पर बैठकर

    अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रहसन चलता है

    अदालत

    सच सामने लाने का दावा करती वह जगह है

    जहाँ झूठ खुले आम काले लबादों में अट्टहास करता है

    संसद

    राज्य की नीति निर्माता हवेली है जिसके हम बाशिंदे हैं

    मगर सच पूछो तो गठजोड़ है सत्ता और मठ का

    जिसके मालिक ही देश के ईश हैं

    बाक़ी दफ़्तर से लेकर कचहरी तक जितने भी अधीश हैं

    सबके सब इस मुजराघर के कारिंदे हैं

    जम्हूरियत, संसद, अदालत

    इन्होंने इतना ज़रूर सिखाया है

    कि बदतमीज़ी और कुछ नहीं

    भाषा में तमीज़ बरतने का गुमान है

    झूठ के स्वरों में गूँजता

    लूट का प्रशस्ति-गान है

    और देश

    वह सिर्फ़ देशभक्ति लिटमस टेस्ट के लिए बनी

    राष्ट्रवाद की प्रयोगशाला है

    जहाँ आँख खोलो तो अँधेरा है

    आँख मींचो तो उजाला है

    स्रोत :
    • रचनाकार : जावेद आलम ख़ान
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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