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अँधेरा और रोशनी

andhera aur roshni

गिरिराज किराडू

गिरिराज किराडू

अँधेरा और रोशनी

गिरिराज किराडू

और अधिकगिरिराज किराडू

     

    एक

     

    मैं जानता हूँ आपने सब कुछ देखा हुआ ही है

    और इसी कारण अंधे हैं

    पर क्या आपने कभी देखी है वह भरपूर फैली हुई रोशनी जो आस-पास रखे
    हुए आईनों के बीच ऐसी चंचला होती है कि उसके गिरते उछलते चलने को
    अपन दृश्य में रखने का यत्न करते हुए आँखें ख़ुद-ब-ख़ुद उनके इस गिरने
    उछलने में शामिल हो जाती हैं

    पेड़ों के पड़ोस में बरसों रहते आए कुछ लोग ताज़ा पत्तियों के बीच इस तरह 
    का खेल देखा होने की बात कभी-कभी करते हैं

    और कभी-कभी ही कवि इस तरह एक दूसरे को पकड़ते छोड़ते हुए बच्चों की
    तरह दौड़ रहे होते हैं कि रोशनी उन सबके बीच फँसे कमज़ोर थके हारे
    खिलाड़ी की तरह खेल से बाहर होने लगती है

    ख़ैर, यह सब सादृश्य विधान है, आपने देखा ही होगा

    पर क्या आईने के बीच गिरती पड़ती उछलती उस चंचला को आपने देखा है?

    दो

    जहाँ लगता था कि एक नहीं, एक दूसरे से सटी हुई अनेक रोशनियाँ मुड़ कर
    इतनी छोटी-सी एक चीज़, जैसे कि आँसू, को घूर रही हैं जो बिना उनकी इस
    कोशिश के अपने वहाँ पड़ी होने का कोई दूसरा इशारा तक नहीं कर पातीं,
    वहीं उस इतनी छोटी-सी चीज़ से भी छोटी किसी चीज़ की तरह बैठा हुआ
    मैं उन्हें दिखाई नहीं दे रहा था।

    इस तरह ख़ुशक़िस्मती मेरी कि एक नहीं, अनेक रोशनियों की पहुँच में होने
    के बावजूद में छिपा रह पाया उस तीखी गंध से भरे मुझसे भी छोटे अँधेरे में
    जिसकी आँखों में मैंने यह दृश्य घटित होते देखा था।

    तीन

    बोल लेने के बाद दम साधे इंतज़ार कर रहा था
    कि जिन शब्दों से बनी थी यह आवाज़
    जब गिरेंगे वे शब्द पृथ्वी पर
    तो कुछ तो आवाज़ होगी

    मैं दम साधे ही खड़ा रहा
    कोई आवाज़ न हुई
    वहम हुआ कुछ देर के लिए हवा में ठहर गए हैं वे
    या उन्हें ने मिलकर बना ली है ख़ामोशी
    या साइलेंसर लगे रिवॉल्वर से किसी ने शूट कर दिया है उन्हें

    स्रोत :
    • पुस्तक : उर्वर प्रदेश (पृष्ठ 242)
    • संपादक : अन्विता अब्बी
    • रचनाकार : गिरिराज किराडू
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2010

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