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अनचीन्ही पहचान

anchinhi pahchan

जावेद आलम ख़ान

जावेद आलम ख़ान

अनचीन्ही पहचान

जावेद आलम ख़ान

और अधिकजावेद आलम ख़ान

    कुछ अक्षर हमेशा अपनी पहचान को तरसते है

    जैसे कुछ लोग महरूम रहते हैं अपने अस्तित्व से

    जिनकी नफ़ासत को उच्चारण से पहचानना था

    उनकी पहचान नुक़्ते की परिसीमा में बाँध दी गई

    जिस शुद्धता को झरने में तलाशना था

    उसकी कसौटी बोतल के बंद पानी में फ़िल्टर हुई

    जिन रंगों से त्योहार का उल्लास बरसाना था

    मुल्क के आईन का ग़िलाफ़ सिलना था

    सलाइयों से फूल काढ़कर बच्चों के स्वेटर बुनने थे

    जो रंग चढ़ने थे लहलहाती फ़सलों पर

    धान और गेहूँ की बालों पर

    मेहँदी लगे हाथों पर शर्माए हुए गालों पर

    वे सभी रंग दंगाइयों के परचम पर चिंघाड़ रहे हैं

    अपनी भूमि के अतिक्रमण पर

    या एक सैनिक की शहादत पर

    देश ज़ख़्मी ज़रूर होता है मगर हारता नहीं

    देश तब हारता है जब उसे झंडे में छिपाया जाता है

    जब अपहृत रंग मज़हबी पहचान में बदल जाते हैं

    जब अपने ही नागरिक जबरदस्ती शत्रु ख़ेमे में खड़े किए जाते हैं

    देश रोता है जनता के भीड़ में बदल जाने पर

    आदमी को कपड़ों से पहचाने जाने पर

    चार उन्मादियों के डर से

    किसी सब्ज़ी और चूड़ी वाले का

    अपनी पहचान छिपाने को मजबूर होना

    मसीहाई गरिमा वाले देश के सीने में धँसी कील जैसा है

    तुम सूली पर लटके इस देवता को खेतों से उठाकर

    मंदिर में बिठा सकते हो

    चारणी सुरों में महानता के कोरस गा सकते हो

    मैं आख़िरी साँस तक देश को देश मानूँगा

    मेरा देश किताबों में क़ैद कोई देवता नहीं है

    मज़ार पर बैठे मुजाविर के हाथ में थमी मुलायम झाड़ू नहीं है

    जिसे आशीर्वाद समझकर बाख़ुशी अपनी पीठ पर पड़ने में

    आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति करूँ

    क़ब्रिस्तान बनी दुनिया में भटकती आस्थाओं के बीच

    अंतिम और इकलौते विकल्प में भी

    मैं जिंदा देश को चुनूँगा

    देश के ज़िंदा लोगों से प्यार करूँगा

    मेरे सहिष्णु देश के नफ़रती बाशिंदों

    तुम चाहो तो मुझे किसी और नाम से बुला सकते हो

    मेरे अलहदा देशप्रेम के लिए कोई फ़तवा ला सकते हो

    स्रोत :
    • रचनाकार : जावेद आलम ख़ान
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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