अनगिनत ज़िंदगियाँ
anaginat zindagiyan
एक
ज़िंदगी वहाँ भी थी
जहाँ मैं खोज नहीं रहा था
हर जगह, हर क़दम, हर साँस में
वह घुल रही थी
जैसे हमने ख़ुद को देखा हो
और चौंककर घबराने लगे
अरे, यह कौन है
जो मेरी तरह आवाज़ बनाता है
लेकिन जब चुप होता है तो
भूल जाता हूँ कि पेड़ के नीचे गिरे
सारे पत्ते मेरे हैं
और मैं उन्हें विदा कर देता हूँ
जैसे सारी ज़िंदगियाँ छिप रही हों
मेरी ओट में
मैं हर बार सोचता रहता हूँ
ये जहाज़, मोटर गाड़ियाँ, कैंचियाँ
पलंग, कंचे, काग़ज़ और रोशनी
किस तरह ज़रूरतों में खदबदाते हैं
और मैं उन्हें छोड़ देता हूँ पके आलुओं के स्वाद में
ज़िंदगी एक पुकार, एक दुख है
वह धक्का देती है
मैं गिरता हूँ
अपनी ही छाँह में
मेरे भीतर का संगीत बजता है
मैं चिड़ियाँ देखता हूँ
और वह पुल जिसे पार करता हूँ रोज़ाना
एक दिन गिर जाता है
सारी चींटियाँ जिन्हें मैं नाम से नहीं जानता
बच जाती हैं
उन्हें मालूम है
मिट्टी से किस तरह उगा और बचा जाता है
दो
मैं दबे पाँव नहीं हूँ
मैं छिप नहीं सकता ख़ुद से
मुझे पसंद है कि ज़िंदगी की तरह
हर जगह खोदा जाऊँ एक नए शब्द के लिए
उन पुराने खोए पत्थरों के लिए
जो हमारी स्मृति में रहे बरसों
ज़िंदगी में बहुत-सी बातें
ऐसी भी सच थीं जिन्हें हम नहीं जानते
मैं उनके लिए अपने घर की दीवारें
खोल देता हूँ
मुझे नहीं मालूम किन मरुस्थलों से
हवाएँ लाती हैं हमारी यात्रा के पड़ावों का संदेश
लेकिन वे बनी रहती हैं गुज़र जाने के बाद भी
अनेक हाथों और पैरों के दरमियान
हम बनाते हैं एक बोगदा
सीलन, कश्ती और धुँध भरा
वे चाय के ख़ाली प्याले
जिनमें हमने डुबोया विचारों को
और बाहर आए अपनी काहिली से
तीन
हम सारी उम्र यात्री रहे
हम बचे रहते हैं तमाम की गई अनैतिकताओं के बाद भी
हम बूढ़ों के शब्दों में भीगते हैं
पार करते हैं स्मृतियों का समुद्र
हम बार-बार घटनाओं को दुहराते
टाँकते रहते हैं अपने रंग और शब्द
उन अधूरी तस्वीरों पर जो टँगी गुमनाम पहाड़ों पर
हम देखते हैं अपनी आत्माओं का कच्चापन
हमने ज़िंदगी के तमाम वनवासों को काटा
हमने रास्ते खोजे, जंगल देखे
हम वहाँ ठहरे जहाँ दरवाज़े नहीं थे
यात्राओं में हम जहाँ-जहाँ डूबे
ख़ुद को अनजान तटों पर पाया
हमने आग, फूल, पत्तियों को रंग और नाम दिए
ज़िंदगी को हमने वहाँ पाया
जहाँ दुकाने, संबंध, मठ, मंदिर और गिरिजाघर नहीं थे
हम उन पुराने बैरकों से लौटते रहे
हमारे सच हमारी भूलों के कारण थे
जिन्हें या तो देर से पाया या उन्हें कभी नहीं जान सके
हम या तो डूबते हैं या डूबते रहने का
शानदार अभिनय करते हैं
आख़िर ज़िंदगी में मूल्यवान चीज़ें काम न आईं
और वे सारी प्रार्थनाएँ
जिनके केंद्र में था ईश्वर
लेकिन उसका कोई बीज रंग नहीं
वह जीवन से बाहर
हवाओं में घुमाया घन है
जिसके छूटते ही डर जाते हैं दाना चुग रहे पंछी।
- रचनाकार : नीलोत्पल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.