अमृतवर्षी रात
amritwarshi raat
अमृतवर्षी रात
नींद में खोए हुए सब
मैं अकेला—
खोल कर पट छोड़ कर घर
लाँघ पर्वत-गिरि-शिखर सब
चाँदनी के मैदान में
आ खड़ा हूँ।
आकाश पर अप्सराएँ
दौड़ रही हैं कमनीय गति में
चरणों के तारक-नूपुर—
बज रहे हैं छम छमाछम!
झूल रहे हैं केशों में गुँथे पारिजात-ग्रंथ
उरोजों और नितम्बों के भार से
झुकी जा रही हैं वे यौवन-धनुष सी।
देख मुझे
खिलखिलाईं, बोलीं
देखो इसे—
सुंदर है
आनंदमय है यह मनुज
धारे है सपनों की रेशमी झालरों का मुकुट
रचता है
आँखों की कोरों में अटके आँसू का गीत
झंकृत करता है
अरुण अधरों पर धवल हँसी की बीन
भेदता है दुर्लभ रहस्यों को
जीवन से प्यार इसे, जानता है जीना यह
नित्य नव कल्पना के वर्ण-समुद्रों पर उगता हुआ सूर्य—
यही है, सखि, अपना प्रिय पुरुष, पुरुष, वर अपना।
झर-झर-झर बरसा जल
अमृतमय बह चली धारा
अंजुलि भर, छक, लौटा मैं
विदा कर व्यथा को, मरण को
आकांक्षा का मृदु कश्मीरी वस्त्र धार
पहना मैंने जीवन का विकसित मंदार-हार
विजय-पथ पर रखा मैंने पहला चरण
अमृतवर्षी रात
नींद में खोए हुए सब
नित्यक्रम से हार कर सोए हुए सब
आदत के बंधन को अपनाए
साहसहीन, अपने में सिकुड़े-सिमटे
सुन न पाए—
अनंत चैतन्योत्सव के इस आह्वान को
इसलिए तो—
ज्ञात नहीं आज तक किसी को
कि
मैं अमर हूँ!
- पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 46)
- संपादक : माधवराव
- रचनाकार : देवरकोण्ड बालगंगाधर तिलक
- प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
- संस्करण : 1985
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