अजनबियत
ajanabiyat
बारह बजे रात
घड़ी के काँटे नुकीले घूरते हैं
समय के पहिए फँसे
अगले सेकेंड तक पहुँचने में
लगेंगे न जाने कितने वर्ष
लगातार जैसे गिरना हो बहुत ऊँचे से सर्व-हीन
स्वप्न का डर जागरण में बेधता है नींद के नीले परिंदे
हार्डवेयर-सॉफ्टवेयर सब तरफ़ कचरा
गिर्द-ओ-पेश निर्मित सूचना-जाले
रोना उठ रहा है हड्डियों को चीरता
डोंगी सँभाले नहीं बनती चेतना की
लड़खड़ाती लुढ़कती
रात एक बजे
भीषण तेजी से हवा काटता है पंखा
नींद के तिलचट्टे अँधेरी नालियों में पीठ के बल
स्क्रीन पर धुँधलाते हैं अक्षर
मन की बददिमाग़ी पर झुंझलाती है देह
सर्र से गुज़रता मोटरसाइकिल सवार सड़क से
बेसुरा टिर्र-टिर्र राग बजाता हुआ अचानक
उच्च रक्तचाप ग्रस्त हृदय से फड़कते हैं
स्ट्रीट लाइट रोशनी में अनवरत बारिश
त्वचा पर ख़ामोशी की प्लास्टिक पिघली टपकती
सन्नाटे से गुँथा हुआ डर
आता आ रहा है धीरे-धीरे
रात दो बजे
डर की परछाइयाँ
चपटी, लचीली एक आयामी
अँधेरी पारदर्शी शक्तिशाली
घेर कर बैठीं दिशाओं को हवाओं को
दिल धड़कना बंद कर दे, साँस लेना ठप्प
गिर गया हूँ पीठ के बल
काई लगे ठंडे फिसलते फ़र्श पर फिर
रीढ़ की हड्डी हुई ज़ख़्मी
आँखें अंधेरे में रोशनी के बीनती है चीथड़े
अँगुलियों से टोहता
चिपचिप चतुर्दिक
रात ढाई बजे
अफनाए हुए दोनों फेफड़े
खाँसते हैं धुएँ की बारिश में
होंठों से गले तक अजब कसैला स्वाद
गर्दन से रीढ़ पर ढुलकती है
पसीने की लार
चिपकती पुतलियाँ
दृष्टि आँखों में नुकीली गड़ रही है
गहरे कटे नाख़ून के
कोनों खिंचे सुतरे टपकते
दहशत सुन्न अँधेरा
जरठ का धधकता घेरा
रेंगते हैं हाथ छाती नाक मुँह पर
गोबरैले, पंखों की फड़क
भूचाल लाती है
रात तीन बजे
आँखों में करकते नींद के जुगनू
चेतना की हर नई फुनगी
कतरती है हृदयगति धड़धड़ाती
सब कुछ शिथिल हो जम रहा है
त्वचा के पोर पर है निकोटिन की परत
पेड़ से छत से नदी से खेत से
चमचमाते हॉस्टलों के मद भरे कमरों,
मॉल की छत, नए पुल से,
रेलवे क्राॅसिंग से बरामद लाश के वीडियो
फ्लैश होते जा रहे हैं
रात चार बजे
नीली हैं हवाएँ भरी खुनकी
स्वर्णचंपा की लपेटों से छलकते
पारदर्शी परों वाले इश्क़ में मशग़ूल
कीड़ों पर निगाह जमाए
बर्बर आत्मलीन छिपकलियाँ झपटती बाज-सी
बेआवाज छापा छटपटाहट कत्ल मंथर
मृत्यु की बेला नियत
भोर सवा पाँच बजे
उषा के घर से छुपाती देह निकली रात
बतकही और रतजगे से भरी आँखें
खुली खिलती मुस्कुराहट पर अलसपन पुतलियों का
चाल में ख़ुशभरी श्लथता लहरती हैं
रास्ते में ओस से भीगी-भरी पगडंडियाँ
पीली पंखुड़ी में मुस्कुराती भटकटैया
सड़क से घूरती हैं धधकती आँखें
एमएमएस-क्लिपों के स्याह गड्ढे में
पकड़कर बाल लटका दी गई
चीख़ की हर गूँज में घुलते ठहाके
कसा जाता रस्सियों से बुना अंतर्जाल
सुबह सात बजे
चाय का लोटा ढुलकता सूर्य जैसा
पैर जलते देह पर छींटे छिटकते हैं
फटी आवाज़ें मिहनती फट गया है दिन
फटी आवाज़ रोते हैं सुबह के राग
और अख़बार फिर आए लदे विज्ञापनों से
हरेक अक्षर उछलकर पकड़ लेता गला
लुगदी की चादर पर कितने तो पंक्तिबद्ध शब्द-शव
सुलगती हैं क्रोध में रतजगी आँखें
मन में घुमड़ता खलबलाता भय
और हर एक चीज़ पर है खीझ ग़ुस्सा
भीतर टपकता है पका फोड़ा
सुबह नौ बजे
डगमग उलझते पैर पिंडली की नस दबाता
हज़ारों तरह से बजाता अँगुलियों के जोड़
घर के बीच छाया प्रेत-सा घिसटा
रसोई छोड़कर बचता-बचाता
दिन तैयार है बाँहें चढ़ाए
जा रहे सब लाम पर काम पर कटने
हूक उठती
मैं किसी का हो न पाऊँगा कभी भी
निज इतिहास की अवसादमय बोतल गिरी टूटी
तरलता का बोलबाला
ग्यारह बजे
चेहरे पर सुई की तरह गड़ती बूँद
एस्बेस्टस माथ में विक्षुब्ध बढ़ता शोर
सीलन और काई में सड़ी बोझिल हवा
संग फाँकता हूँ अल्प्राजोलम1 गोलियाँ
सूखे सूने ठंडे कमरे के कोने में
दीवालें बड़ी होती जा रही हैं
और छत नीची दबाती जा रही
दम घुट रहा है
वहीं कोने से
विस्थापित चींटियों का शुरू है लॉन्ग-मार्च
दुपहर साढ़े बारह बजे
फफूँदी की परत सब खिड़कियों पर
सड़कों पर हज़ारों गाड़ियाँ
कुचलकर धड़धड़ाते भागते हैं हॉर्न/साइरन
बहुमंज़िला मॉलों के शीशे में पिघलते ग्राहक
हवाओं में कड़क नोटों की
सरसराती जानलेवा गंध
हर इमारत दृष्टि को लौटा रही
अपनी भव्यता से कुचलती
व्यक्तित्व का ढक्कन मुँदा
सिर लटक कर टूटने के छोर पर
देवताओं की आभा से बनी
चटख पीली जाँघिया पहने
अश्लीलता से ताड़ता है दिन
बारिश में नहाकर घास ख़ुश है
बाँस ख़ुश है झूमता ख़ुश हैं फतिंगे
दो बजे
पश्चिम से चलती हैं बदरंग हवाएँ धूसर
पूरब के चेहरे को पीटती थपेड़ों से
चल रही सलफ़ास की गोली
सरक कर गिर गया जाने कहाँ
वह एस. एम. एस.
सारे पासवर्डों से भरा बक्सा
गुम गए नंबर
दरारों में पिघली याद का भभका
निगला नहीं जाता थूक अपना
दंडित पृथ्वी मुंडित बेटी
खंडित शरीर महिमामंडित
आक थू!
शाम छह बजे
गुमशुदा आवाज़ के लट्टू नचाता
शाम का सूरज डोरी खींचता है
घूमती कील गहरे गड़ रही है
ठीक छाती में
पहरे का वक़्त बदलेगा
घरों की नींव में ज़ख़्मी पड़ी मृत आत्माएँ
करवट बदलती हैं लौटते हैं लोग
सूरज काटती है क्षितिज की कैंची
हर क्षण कालिमा की कौंध बढ़ती जा रही है
चीख़ते हैं टोड गहरी उदासी से
झींगुर वेदना से
हवा ग़ायब
स्तब्ध सब कुछ
रात आठ बजे
जीभ की नोंक से आँत तलक
अग्नि लहर बू बासी ज़ायक़ा बद
सीने तक भरा है गरल।
आत्म-वंचित,
क्रूरता के डोज की
सार्वजनिक वितरण प्रणाली
अपने दाँत से हूँ काटता नाख़ून
बहता जा रहा है ख़ून
दाँत रुकते ही नहीं
दर्द भीषण सर्द आहट
आत्मभक्षी
जगमगाती डरी लड़की की निगाहें
होर्डिंग से ताकती हैं
कुछ काम कर लूँ
तो हो शायद दहशत कम
हज़ारवीं बार आया अतल से ख़याल।
रात दस बजे
लकवाग्रस्त-सी सब देह
घिसटता रेंगता हूँ खोजता
जीवित कोई स्पर्श
अस्पष्ट शब्दों में तुम्हारा नाम गोहराता
मुँदी जाती आँख में छब खींच रही है
नींद के काही परिंदे नील चादर ला रहे हैं
जुगनुओं से दमकती
जंगलों की हवा का टुकड़ा
श्रम की बीन-मादल बज रहे मन में कटे से
सिरहाने खड़े हैं शब्द-साथी
सिहरकर सब शिराएँ धमनियाँ जागीं...
- रचनाकार : मृत्युंजय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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