कुतूहल भरा विराट खिलौना
जाड़े की रात के भिनसारे में
फेंका हुआ रबड़ का गुड्डा या
कोहरे के धुँधलके में
रास्ते में चौपायों का चेहरा
दूर क्षितिज में फीकी स्वर्ण-रेखा
समुद्र की लहरों में उलझकर खोने-सा
एयरपोर्ट
तुम्हारे होने का
महज अहसास ही होता है।
तेज़ आवाज़ की प्रचण्डता
धीमी हो आने पर
धूलरहित तुम्हारे रनवे पर
विराट जटायु
आसमान से झपटता है नीचे ज़मीन पर
ममतारहित रक्तिम सूर्य
हिरण्यकश्यप-सा ठहाका मारकर
टेढ़े से सीधा होता है
सरलरेखा की दूसरी ओर।
लोहे के घेरे के दूसरी ओर
सहस्र कण्ठों की हर्षध्वनि
आर्त्तनाद-सी सुनाई देती है
क्या वे लोग महज दर्शक बनकर
रह जाएँगे हमेशा के लिए
तेज़ सूर्य की चिलचिलाहट में भी
ठण्ड लग रहे कमरे में
अथवा हरी घास के
ग़लीचे पर
उनके पदचिह्न नहीं पड़ेंगे
क्या
वे लोग उस जटायु के
गर्भ के रहस्य को भेदकर
उपभोग नहीं कर सकेंगे
देवावतरण का आनंद?
एयरपोर्ट
ऐ अगम्य निषिद्ध अंचल
कुछ गिने-चुने मैनों को
पालने का मंत्र तुम जानते हो
लोहे के घेरे के दूसरी ओर
उनकी अनगिनत संख्या
तुम्हें नहीं मालूम।
उनके लिए तुम
रावण की राजधानी
सोने की लंका हो
अथवा उसी तरह और कुछ
दृश्य-अदृश्य के
समझौता विहीन मध्यबिंदु
न पहुँच पाने-सी दूरी पर
खिला हुआ सुगंधहीन फूल।
- पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1985 (पृष्ठ 52)
- संपादक : बालस्वरूप राही
- रचनाकार : यदुनाथ दाश महापात्र
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 1990
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