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अगर

agar

अगर समा पाता ब्रह्मांड

मेरी बाँहों में

तो चला जाता मैं लिए

वहीं-कहीं जहाँ

जीवन-मृत्यु की ज़रूरत होती क़तई।

इस अँधेरे से बेहतर

अगर समझ पाता मैं

कि मुझे निगल सकेगा कोई ख़ौफ़

कोई ख़तरनाक बीमारी मुझे जकड़ सकेगी

किसी अँधियारे बियाबान में

भटका सकेगी कोई मौत

तो मैं लिए आता

जन्मजात सूर्य की क़तारें

और कहीं भी जल जाता

आदिम-गंध के अनजान प्रदेश में।

अगर मैं कह देता ख़ुद से

कि तुम मात्र एक भ्रम हो

और इस धरती के जीव-जंतुओं से कि ढूँढ़ो

ईश्वर या उसके विपर्यय के भार का कोई शब्द

तो तुम्हारी स्वतंत्रता

सुनिश्चित है।

अगर मैं चाहता

तमाम भीषण नर-संहार के बदले

लबलबाती हुई करुणा

तो कम पड़ गए होते तुम्हारे आँसू

और मेरे शब्दों का अर्थ चुक गया होता।

अगर मैं बता पाता

कि कैसे गरुआ रही है धरा मेरे सर पर

और कैसी मार से छिन गया मेरा विश्वास

घर लौटने की ख़ातिर

और कह पाता कि किन अनिच्छाओं की

अँधेरी बस्तियों में

गुज़ार दीं मैंने ताज़ा सुबहें

अब वे मिल सकेंगी मैं लौट सकूँगा।

अगर मैं रह पाता

बग़ैर प्यार के

बिना किसी की चाह के

बिना मेहनत की गंधाती तड़प के

और कह पाता

हर किसी से सीधी-सच्ची बात

यह अपने लिए नहीं, यह सबके लिए है

तो कर देता ऐलान

हम जिएँगे

हम जीतेंगे।

स्रोत :
  • पुस्तक : इस नाउम्मीदी की कायनात में (पांडुलिपि)
  • रचनाकार : ऋतु कुमार ऋतु

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