साँसों की छन्नी से
ज़िंदगी की रेत छानती
हाल-बेहाल हो गई हूँ गुरुदेव!
तू ही बता
क्या अंजाम मेरी तलाश का
बिखर गई
सिर पर छाई तीतर-पंखी
तहें मार कर छिपा लिए
वृक्षों ने अपने साये
क्रौंच लौट गए शावकों के पास
एक मैं हूँ जो अभी भी
छाने जा रही हूँ मरुस्थलों को
मेरे माथे में सुलगता हिमालय
गंगा-यमुना मेरी आँखों में
सीने के भीतर पाताल-दर-पाताल
मैं स्वयं कहीं और हूँ
कहाँ हूँ भला मैं स्वयं!
शीशे में भ्रम मेरे अस्तित्व का
हर्फ़ों में प्यास का पता
आवाज़ों में भी आधी अधूरी
वह कौन-सा एहसास
जिसमें पेश हूँ मैं पूरी-की-पूरी
इतनी बेचैनी
कि फ़ौलाद भी पानी हो बह चले
इतनी भटकन
कि पत्थरों के पंख उग आएँ
किस ताप से बर्फ़ पिघले
किस चीख़ से पहाड़ फटें
कौन-सा दर्द ज़ख़्मों के लिए दवा बने
किस रंग से कैनवस मुकम्मल हो
गुरुदेव! बेचारी क्या जाने
तू ही बता, क्या अंजाम मेरी तलाश का...
गुरुदेव
क्यों दौड़ती है जंगल-जंगल
ख़ुशबुओं के पीछे
तेरे भीतर ही हैं कस्तूरियाँ
क्यों तलाशती है अपना अस्तित्व
भ्रमित करते शीशे में से
तेरा सच तो हर बहती साँस में
जिस हादसे में से हम उपजे
उसी में विलीन हो जाना है
व्यर्थ क्यों बेचैन रहें
पागल इच्छाओं की ग़ुलामी करके
मक़सद की शिनाख़्त हो
तो इतनी बुरी नहीं होती भटकन
लालसाएँ नहीं हों
तो मुबारक़ हो निपटती हर तलाश
माहौल में इतने गूढ़ रंग भरें
कि सारी फ़िज़ा गुलज़ार हो जाए
ज़िंदगी की हथेली पर
इस तरह हस्ताक्षर करें
कि भटकती रूह भी सरशार हो जाए
सोई आत्मा के स्वप्नों में
पागल इच्छाएँ पहाड़ चढ़तीं
जागती रूह के साथ
हस्ती की आज़ादी की राह खुलती
रेत छानती-छानती
तू हाँफ जाए जब
आ जाना
घास की विकसती पत्तियों के पास
पत्तियों के किनारे चलती-चलती
पहुँच जाना जड़ों के पास
मिल जाएगी
तेरी खोई हुई चीज़...
- पुस्तक : महाकंपन (पृष्ठ 21)
- रचनाकार : दर्शन बुट्टर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2016
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