आधी रात को कविता
aadhi raat ko kavita
मैं सपने में था
मुझे अधमरा कर
मेरी मुश्कें कसी जा रही थी।
एक संकरे गलियारे में भरी थी
गिद्ध नज़रें, कुटिल मुस्कानें, और विषभरी साँसें
वहीं गड़े थे चारों और
ख़ूँख़ार ख़ंजर, तेज़ तलवारें
और नुकीले नेज़े
मुझे वहाँ यूँ बार-बार
धकेला जा रहा था
कि मैं अपने-आप ही पंगु जाऊँ
और किसी पर दोष भी ना आए
एक क्रूर सोच काट रही थी
मेरे हाथ, मेरे पाँव
लेकिन बचे-खुचे होश से
मैंने सपने में भी
बचा लिया था सिर
और सिर ने ही कहा
अब सिर उठाओ और जाग जाओ
नहीं तो मारे जाओगे सदा के लिए।
लेकिन कहीं जागते ही
गर्म हवा छेद ना डाले मेरा बदन
निर्दयी नज़रें नग्न ना कर दें मुझे सरे-आम
मैं फिर डरने लगा
और सोते-सोते ही तिल-तिल मरने लगा।
फिर अचानक दृश्य बदल गया
दो सलाख़ें लगी मेरी आँखे फोड़ने
छीनने लगी मेरे सारे सपने
मैंने साहस कर सिर उठाया
जब लड़ना ही है, तो क्यूँ ना जागूँ और सचमुच लड़ूँ
जब मरना ही है, तो अपनी ही आँखों के सामने
सच-सच मरूँ।
ये सोचकर
मैं आधी रात को लेकर सिर हथेली पे
सपने से बाहर निकल आया
खुली आँखो से, मैं साज़िशों के साथ गाने लगा
सब सुनते, समझते, मैं नफ़रतों के संग नाचने लगा
थोड़ा उदास होकर अपने मासूम सपनो के मारे जाने का उत्सव मनाने लगा
धीरे-धीरे, मैं अपनी ही आँखो के सामने टुकड़े-टुकड़े काटा जाने लगा
लेकिन मैं सिर उठाकर आधी रात को कविता लिखने लगा।
- रचनाकार : तजेंद्र सिंह लूथरा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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