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(अ) सैनिक व्यथा-पाँच

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गौतम राजऋषि

गौतम राजऋषि

(अ) सैनिक व्यथा-पाँच

गौतम राजऋषि

और अधिकगौतम राजऋषि

    दोस्त मेरे!

    अच्छे लगते हो

    अपनी आवाज़ बुलंद करते हुए

    मुल्क के हर दूसरे मुद्दे पर

    जब-तब, अक्सर ही

    कि

    शब्द तुम्हारे ग़ुलाम हैं

    कि

    क़लम तुम्हारी है कनीज़

    बहुत भाते हो तुम

    कॉमरेड मेरे!

    कवायद करते हुए

    सूरज को मिलते अतिरिक्त धूप के ख़िलाफ़

    बादल को हासिल अनावश्यक पानी के विरूद्ध

    बुरे तब भी नहीं लगते,

    यक़ीन जानो,

    जब तौलते हो तुम

    चंद गिने-चुनों की कारगुज़ारियों पर

    पूरी बिरादरी के वजन को

    और तब भी नहीं

    इंगित करते हो अपनी ऊँगलियाँ जब

    दमकती वर्दी की कलफ़ में लगे

    कुछ अनचाहे धब्बों पर

    बेशक

    शेष वर्दी कितनी ही

    दमक रही हो,

    तुम्हारी पारखी नज़रें

    ढ़ूँढ़ ही निकालती हैं धब्बों को

    पसंद आता है

    ये पैनापन तुम्हारी

    नज़रों का

    कि

    प्रेरित होता हूँ मैं इनसे

    इन्हीं की तर्ज़ पर

    पूरे दिल्ली वालों को

    बलात्कारी कहने के लिए

    नहीं, मैं नहीं कहता,

    आँकड़े कहते हैं

    मुल्क की राजधानी में होते हैं

    सबसे अधिक बलात्कार

    तुम्हारे शब्दों को ही उधार लेकर

    पूरी दिल्ली को ये विशेषण देना

    फिर अनुचित तो नहीं...?

    कुछ मनोरमाओं संग

    एक मुट्ठी भर नुमाइंदों द्वारा

    की गई नाइंसाफ़ी का तोहमत

    तुम भी तो जड़ते हो

    पूरे कुनबे पर

    सफ़र में हुई चंद बदतमिजियों

    की तोहमतें

    तुम भी तो लगाते हो

    तमाम तबके पर

    ...तो क्या हुआ

    कि उन मुट्ठी भर नुमाइंदों के

    लाखों अन्य भाई-बंधु

    खड़े रहते हैं शून्य से नीचे

    की कंपकपाती सर्दी में भी

    मुस्तैद सतर्क चपल

    चौबीसों घंटे

    ...तो क्या हुआ

    कि उन चंद बदतमिजों के

    हज़ारों अन्य संगी-साथी

    तुम्हारे पसीने से ज़्यादा

    अपना ख़ून बहाते हैं

    हर रोज़

    तुम्हें भान नहीं

    मित्र मेरे,

    कि

    इन लाखों भाई-बंधु

    इन हज़ारों संगी-साथी

    की सजग ऊँगलियाँ

    जमी रहती हैं राइफ़ल के ट्रिगर पर

    तो शब्द बने रहते हैं ग़ुलाम तुम्हारे

    तो बनी रहती है कनीज़ तुम्हारी क़लम

    सच कहता हूँ

    जरा भी बुरे नहीं लगते तुम

    हमसाए मेरे

    कि

    तुम्हारे ग़ुलाम शब्दों का दोषारोपन

    तुम्हारी कनीज़ क़लम के लगाए इल्ज़ाम

    प्रेरक बनते हैं

    मेरे कर्तव्य-पालन में

    तुम्हीं कहो

    कैसे नहीं अच्छे लगोगे

    फिर तुम,

    दोस्त मेरे...

    स्रोत :
    • रचनाकार : गौतम राजऋषि
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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