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मीडिया : दो

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आश करण अटल

आश करण अटल

मीडिया : दो

आश करण अटल

और अधिकआश करण अटल

    शहर के बीच

    हाई-वे का सीन था

    सीन प्रातःकालीन था

    रिपोर्टर मुस्कुराया

    और गर्व से बताया—

    “ये है एशिया का सबसे बड़ा

    ओपन एयर शौचालय

    और मैं हूँ अजय

    आप देख रहे हैं

    हमारा विशेष कार्यक्रम

    ‘हाई-वे के हमदम’

    हाथ में लौटा-डिब्बा लिए

    लोग रहे हैं

    जा रहे हैं

    और वापस जा रहे हैं

    हिंदू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई

    वैसे तो हर जगह लड़ाई

    हाई-वे पर भाई-भाई।”

    इसके बाद रिपोर्टर ने

    अपना रुख़ दूसरी तरफ़ किया

    और एक हाई-वे के

    हमदम का इंटरव्यू लिया—

    “आप यहाँ क्या कर रहे हैं?”

    “जी, मैं क्या कर रहा हूँ

    ये तो आप देख ही रहे हैं

    पर आप यहाँ क्या कर रहे हैं?”

    रिपोर्टर बोला—

    “हम लाइव टेलीकास्ट कर रहे हैं

    हमारा विशेष कार्यक्रम—

    'हाई-वे के हमदम'

    इसमें आपका स्वागत है।”

    हमदम बोला—

    “हम तो यहाँ रोज़ आते हैं

    आज आपका स्वागत है।

    लेकिन ये तो कहो

    आज फ़ैशन शो की जगह हमारा शो?

    मज़े से फ़िल्माओ, क्या लोकेशन है

    हम धरतीपुत्र

    और ये धरती के पुत्रों का

    खुला अधिवेशन है।”

    रिपोर्टर ने पूछा—

    “क्या आपको नहीं लगता कि आप

    सरकारी नियम का उल्लघंन कर रहे हैं?”

    “जी, हम तो क़ुदरत के नियम का

    पालन कर रहे हैं”

    क़ुदरत के नियम पालन से

    सरकारी नियम पालन से

    सरकारी नियम टूटते हैं

    तो हम इसमें क्या कर सकते हैं?”

    हमदम ने बताया।

    रिपोर्टर ने इंटरव्यू आगे बढ़ाया—

    “ये हाई-वे कब से है?”

    “जी, दस साल से।”

    ''यहाँ आपका अधिवेशन

    कब से चल रहा है?”

    “जी, महाभारत काल से,

    पहले यहाँ एक गाँव था

    एक दिन शहर पहुँचा टहलता हुआ

    और गाँव का अपहरण कर लिया

    हमने भी आधुनिकता के सामने

    समर्पण कर दिया

    नतीजा सामने है, देख लिया?

    शहर ने हमारा

    और हमने शहर का

    हुलिया बिगाड़कर रख दिया।”

    तभी न्यूज़ रीडर ने सवाल किया—

    “अजय! ख़राब मौसम या बरसात के दिन

    बाधा पहुँचाते हैं

    क्या तब भी ये लोग रोज़ आते हैं?”

    बोला अजय—

    “बरसात हो या प्रलय

    रोज़ आना पड़ता है

    आदमी खाए बिन रह सकता है

    बहाए बिना रह सकता है

    लेकिन आए बिना एक दिन से अधिक नहीं

    रह सकता संजय!”

    संजय बोला—“इस जानकारी के लिए

    शुक्रिया अजय!”

    अंतिम सवाल किया रिपोर्टर ने—

    “क्या कारण है कि शहर में

    आप शरमाते हैं, लजाते हैं

    इस तरह खुले में बैठ जाते हैं

    जबकि गाँव में आज भी

    लोकलाज निभाते हैं?”

    हमदम बोला—

    “गाँव में एक दूसरे को जानते हैं

    इसलिए करते हैं लाज

    यहाँ जान-पहचान ही नहीं

    तो काहे की लाज

    और किसका लिहाज़

    गाँव में संस्कार था

    शहर में रोज़गार था

    रोज़गार के लिए गाँव छूटा

    तो आँखों की शर्म रही जाती

    वहाँ पगड़ी उतारने में

    आती थी शर्म

    यहाँ कपड़े उतारने में नहीं आती।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : हास्य-व्यंग्य की शिखर कविताएँ (पृष्ठ 51)
    • संपादक : अरुण जैमिनी
    • रचनाकार : आश करण अटल
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण पेपरबैक्स
    • संस्करण : 2013

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