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सरोवर वर्णन

sarowar warnan

उसमान

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सरोवर वर्णन

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और अधिकउसमान

    कहा सराहौं सरावर तीरा, पानि मोति तहं कांकर हीरा।

    अति औगाह थाह नहिं पाई, विमल नीर जहं पुहुमि देखाई॥

    अति अमोष अति विस्तारा, सूझ जाइ वारहुत पारा।

    घाट बंधाए कंचन ईंटा, सरग जाइ जनु लाग्यो भीटा॥

    ऊपर ताल पानि जहं ताईं, ठांव-ठांव चौखंडि बनाई।

    जहं तहं चौरा के लीन्हें, निसि दिन रहहि बिछावन कीन्हें॥

    जहाँ एक दिन करै निवासा, सोई ठांव होई कविलासा।

    सुख समूह सरवर सोई, जग दूसर कोउ नाहि।

    मानुष कर का पूछिये, देवता देखि लोभाहिं॥

    भीतर सरवर पुरइन पूरी, देखत जाहि होई दुख दूरी।

    फूले कवल सेत राते, अलि मकरंद पियहि रस मातें॥

    वासर पतुम कुमुद रह फूला, सब निसि नषत चांद रह भूला।

    तोरि कंवल केसर झहराही, केसरि बास आव जल माही॥

    हंस झुंड कुरिलहिं चहुँ ओरा, चकइ चकवा पौरहिं जोरा।

    संवरत ताहि सिरायो हीया, चातक आइ पानि सो पीया॥

    जित पंछी जलके आए, केलि करत अति लाग सोहाए।

    रहसहिं क्रीड़ा वृंद बस, भौंर कंवल फहराहिं।

    निसि दिन होहिं अनंत तहं, देखत नैन सिराहिं॥

    कोकिल निकर अंमिरित बोलहिं, कुंज-कुंज गुंजत बन डोलहिं॥

    सारी सुआ पढै बहु भाखा, कुरलहिं बैठि-बैठि तरु साखा।

    पवई आपन आपन जोरी, छकी फिरहिं कुरलहिं चहुँ ओरी॥

    खंजन जहँ तहँ फरकि देखावै, दहिअल मधुर वचन अति भावै।

    मोर मोरनी निरतहिं बहुताई, ठौर और छवि बहुत सोहाई॥

    चलहिं तरहिं तहँ ठुमुकि परेवा, पंडुक बोलहि मृदु सुख देवा।

    बहु कटनास रहहिं तेहि पासा, देखि सो संग भाग जेहि वासा॥

    भंगराज भृंगी, हारिल चात्रिक जूह।

    निसि वासर तेहि बारिमहं, कुरलहिं पंछी समूह॥

    उस सरोवर के घाट की मैं क्या सराहना करूँ! जहाँ का पानी मोती के समान तथा कंकड़ हीरे के समान चमक रहे हैं। वह सरोवर बहुत गहरा है और उसकी गहराई का पता नहीं लगता। उसका पानी इतना स्वच्छ है कि उसके नीचे की भूमि भी दिखाई पड़ती है। वह अति अमोघ है और बहुत ही विस्तृत है। पानी की अधिकता से उसके किनारे का छोर भी दिखाई नहीं पड़ता। उस पर सोने की ईटों से घाट बनाए गए हैं। उससे लगे हुए इतने ऊँचे टीले हैं, मानो वह स्वर्ग को जा रहा हो। ऊपर से जहाँ तक पानी दिखाई देता है वहाँ तक तालाब ही तालाब हैं। उस पर जगह-जगह चार खंड के बुर्ज बनाए गए हैं और जहाँ-तहाँ चबूतरे भी बनाए गए हैं। वहाँ पर दिन-रात बिस्तर आराम करने के लिए बिछे रहते हैं। जहाँ एक क्षण के लिए भी कोई रह जाता है, वही स्थान कैलाश के समान पवित्र हो जाता है। वह सरोवर सब प्रकार के सुखों का समूह है और उसके समान संसार में दूसरा कोई स्थान नहीं है। मानव का क्या कहना, उस स्थान को देखकर तो देवताओं के मन में भी वहाँ रहने का लोभ जाता है।

    सारा सरोवर कमल के पत्तों से भरा हुआ है जिसे देखकर दुख दूर हो जाते हैं। वहाँ पर श्वेत और लाल वर्ण के कमल खिले हुए हैं। भौंरे उनका रस-पान करके मस्त होते हैं। दिन में कमल तथा रात्रि में कमुदिनी खिलती हैं। उसकी सुंदरता को देखकर रात्रि में सभी नक्षत्र और चंद्रमा खोया सा रह जाता है। कमल को तोड़ने पर केशर झड़ने लगती है और केशर की सुगंधि जल में व्याप्त हो जाती है। हंस के झुंड चारों ओर क्रीड़ा करते रहते हैं। चकवा चकवी के जोड़े तैरते रहते हैं। उनको विचरते देखकर हृदय में ठंडक पड़ जाती है। चातक आते हैं और उसका पानी पीते हैं। जितने भी जल-पक्षी यहाँ आते हैं, वे सब तरह-तरह की क्रीड़ा करते हुए बड़े सुंदर लगते हैं। इन जल-पक्षियों के झुंड की क्रीड़ा में एक रहस्य छिपा है। कमलों पर भौरों की पंक्ति फहराती हुई दिखाई पड़ती है। रात-दिन यहाँ पर इतनी अधिक क्रीड़ा होती है कि उसको देख-देखकर नैन सराहना करते हैं।

    कवि का कथन है कि उस तालाब के पास कोयल अमृत सी मीठी बोलती थी तथा अपनी बोली से वहाँ के कुजों-कुजों को गुंजा देती थी। वहाँ पर रहने वाली मैना और तोता अनेक भाषाएँ सीखते हैं। वे पेड़ों की शाखाओं पर बैठ-बैठकर कलरव करते हैं। अपनी-अपनी जोड़ी बनाकर वे चारों ओर ख़ूब छककर कलरव करते फिरते हैं। खंजन पक्षी जहाँ-तहाँ अपने पंखों को फड़फड़ा कर दिखाता है। दहिबल पक्षी अपने मधुर स्वर में गाता हुआ सभी को अच्छा लगता है। मोर-मोरनी के जोड़े नृत्य करते हैं और स्थान-स्थान पर उनकी सुंदरता बहुत ही सुहाती है। परेवा पक्षी जहाँ-तहाँ तरह-तरह से ठुमक कर चलते हैं। पंडुक पक्षी कोमल ध्वनि में बोलता हुआ बहुत अच्छा लगता है और सुनने वालों को सुख देता है। उसी के पास बहुत से नीलकंठ पक्षी भी रहते हैं। उसके साथ ही एक भाग में जुर्रा नाम की शिकारी चिड़िया भी रहती है। मंगरा नामक चिड़िया और भृंगी नामक भौंरे, तोते, चातकों के झुंड के झुंड रहते हैं। रात-दिन वे वहाँ अपने-अपने घोंसलों में क्रीड़ाएँ एवं कलरव करते रहते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चित्रावली (पृष्ठ 49)
    • संपादक : माया अग्रवाल
    • प्रकाशन : कला मंदिर
    • संस्करण : 1985

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