प्रेम प्रीति सुख निधि के दाता, दुइ जग एकोंकारि विधाता।
बुद्धि प्रागस नाहीं तुअ ताईं, तुअ अस्तुति जे करौ गोसाईं।
तीनि भुअन चहुँ जुग तैं दाता, आदि अंत जग तोहि पै छाजा।
पंडित मुनिजन ब्रह्म बिचारी, तुअ अस्तुति जग काहु न सारी।
एक जीभ मैं कैसे सारौं, सहस जीभ चहुँ जुग नहिं पारौं।
तीनि भृअन घट घटन, अनौन रूप बेलास।
एक जीभ कहु ताहि कै, कैसे अस्तुति करे हवास॥
गुपुत रूप परगट सब ठाईं, निरगुन एकोंकार गोसाईं।
रूप अनेग भाव परमेसा, एक रूप काँछे बहु भेसा।
तीनि लोक जहवाँ लगि ठाईं, भोगी क अनवन रूप गोसाईं।
करता करै जगत सो चाहै, जमु था जमु रहै जो आहै।
बाजु नाव बेलसै सब ठाईं, बाजु रूप बहु रूप गोसाईं।
त्रिभुअन अपुरी पूरि कै, एक जोति सब ठाउँ।
जोतिहि अनवन मूरति, मूरति अनवन नाउँ॥
जो यहि तीनि लोक न समाना, सो कैसे कै जाइ बखाना।
त्रिभुअन भाव जान सब कोई, जो किछु भाव होइ सो होई।
चारौं जुग परगट न छपाना, बिरला जन काहू पहिचाना।
परगट दसौं दिसा उजिआरा, सरब लीन पै आपु निनारा।
जे आपुहीं वोहि मन लावा, बिधि वोहि पै आपु देखावा।
गुपुत रहै परगट जो बेलसे, सरव्यापी सोइ।
दूजा कोइ न अहै, और भया नहिं होइ॥
सुर नर नाग जहाँ लगि आही, कोटि बरिस जो अस्तुति सारहीं।
पाछे सब पछताइ कहाही, जस तै तस हम जानै नाहीं।
कोटि वरिस जो मन फिरि आवे, बुधि बपुरी दहुं कहवाँ पावे।
जग जीवन अहार कर दाता, करता हरता एक विधाता।
त्रिभुअन चहै जुग एक अकेला, आपु अपानं रूप बहु खेला।
अलख निरंजन करता, एक रूप बहु भेस।
कतहूँ बाल भिखारी, कतहूँ आदि नरेस॥
जो जग जन्मि तोहि न पहिचाना, आहर जन्म मुए पछताना।
जगत जन्मि लीन्हा ते लाहा, जो तोहिं बिनु तोसें किछु चाहा।
करता किछु मन इच्छा मोहीं, तेहि सेती परिजाचौ तोहीं।
जैसे जिव निस्चै तोहि जाना, तैसे जीभ न जाय बखाना।
जौ मन गुनिये तौ सब थोरी, अस्तुति कौन करौं मैं तोरी।
ग्यान पंखी कै मनु जहाँ, औ मति कै पैठार।
तहवाँ लै पे पंक तनु, तें तरु भेटै पार॥
आदिहिं आदि अंत ही अंता, एकइ अरथ जो रूप अनंता।
एक सउ दोसर कोउ नाहीं, आदि न भौ अंत न आही।
निश्चय जिउ जाना परवाना, त्रिभुअन निकट एक कै जाना।
दोसर नहीं कतहूँ जो तुअ जोरा, दरपन दिस्टि रूप मुख तोरा।
तोर खोज खोजत सो पांवै, जो आपन सब खोज हेरावै।
सब भेदी कर भेदि, औ सब रसिक सुजान।
सो सब सिस्टि पेछौरी, आपु एक परवान॥
सुनसि अब ताकी बाता, परगट भौ जो बिरह विधाता।
सीभु सरीर सिस्टि जो आवा, और सिस्टि जो वोहि कै भावा।
बाकी जोति प्रगट सब ठाऊँ, दीपक सिस्टि जो महंमद नाऊँ।
वोहि लगि दैअ सिस्टि उपराजी, त्रिभुवन पेम दुंदुभि बाजी।
नाव महंमद त्रिभुअन राऊ, वोहि लागि भौ सिस्टि क चाऊ।
बाकी अँगुरी करकै हम, अग्या, चाँद भयो दुइ खंड।
बाकी धूरि जो पाँव की, अचल भयो ब्रह्मंड॥
- पुस्तक : मधुमालती (पृष्ठ 3)
- संपादक : शिवगोपाल मिश्र
- रचनाकार : मंझन
- प्रकाशन : हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी
- संस्करण : 1963
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