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स्तुति (दो)

stuti (do)

मलिक मोहम्मद जायसी

और अधिकमलिक मोहम्मद जायसी

    कीन्हेसि हेवँ समुंद्र अपारा। कीन्हेसि मेरु खिखिंद पहारा॥

    कीन्हेसि नदी नार झरना। कीन्हेसि मगर मंछ बहु बरना॥

    कीन्हेसि सीप मोंति बहु भरे। कीन्हेसि बहुतइ नग निरमरे॥

    कीन्हेसि बनखँड जरि मूरी। कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी॥

    कीन्हेसि साउज आरन रहहीं। कीन्हेसि पंखि उड़हिं जहँ चहहीं॥

    कीन्हेसि बरन सेत और स्यामा। कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा॥

    कीन्हेसि पान फूल बहु भोगू। कीन्हेसि बहु औषद बहु रोगू॥

    निमिख लाग कर ओहि सबइ कीन्ह पल एक।

    गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक॥

    उसने हिम और अपार समुद्र रचे। उसने मेरु और खिखिंद (किष्किंधा) पर्वत रचे। उसने नदी, नाले और झरने रचे। उसने मगर और बहुरंगी मछलियाँ रचीं। उसने सीप रची, जो अनेक मोतियों से भरी हैं। उसने अनेक निर्मल नग रचे। उसने वन-खंड और उनमें जड़ी-बूटियाँ रचीं। उसने ताड़, खजूर जैसे उत्तम वृक्ष रचे। उसने जंगली पशु रचे जो जंगलों में रहते हैं। उसने पक्षी रचे जो जहाँ चाहते हैं उड़ते हैं। उसने श्याम श्वेत रंग बनाए। उसने भूख रची एवं नींद और आराम बनाया। उसने पान-फूल और बहुत से भोग रचे। उसने ओषधियाँ और अनेक रोग उत्पन्न किए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 2)
    • रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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