आदि बखानों सोई चितेरा, यह जग चित्र कीन्ह जोहि केरा।
कीन्हेसि चित्र पुरुष औ नारी, को जल पर अस सकै संवारी॥
कीन्हेसि जोति सूर ससि तारा, को अस जोति सकै जग पारा।
कीन्हेसि वचन वेद जेहि सीखा, को अस चित्र पवन पर लीखा॥
अस विचित्र लिखि जाने सोई, वहि बिनु मेट सकै नहि कोई।
कीन्हेसि रंग स्याम औ सेसा, राता पीत और जग जेता॥
कीन्हेसि रूप बरन जहं ताई, आपु अबरन अरूप गुसाईं॥
अगिनि पवन रज पानि के. भांति भांति व्योहार।
आपु रहा सब मांहि मिलि, को निगरावै पार॥
सबसे पहले मैं उस चितेरे (चित्रकार परमात्मा) का वर्णन करता हूँ जिसने इस संसार-रूपी चित्र का निर्माण किया है। इस चित्र में उसने स्त्री और पुरुष बनाए हैं। इस संसार में ऐसा कौन है जो ज्वार भाटे के कारण उत्पन्न चित्र को संवार सके या बना सके! उसने ज्योति से सूर्य, चंद्रमा और तारे बनाए हैं। उनके अतिरिक्त ऐसी कौन-सी ज्योति है जो संसार में पार ले जा सके, यानी अशांत जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा दिला सके। उसने अपने वचनों से वेद की रचना की है। उन्हीं वेदों को पढ़कर सब ज्ञान की बात सीखते हैं। उसने पवन पर चित्र लिखा है अर्थात् मनुष्य को वाणी दी जिसकी विभिन्न ध्वनि तरंगों से हवाएँ भी बिंबों का निर्माण करती हैं। इस विचित्र लिखावट को लिखने वाला ही जान सकता है। उसके बिना या उसके चाहे बिना कोई उसे नहीं मिटा सकता! उसने श्वेत-श्याम-लाल और पीले रंगों का संसार में निर्माण किया है। उसने ही विभिन्न रूप तथा वर्णों का निर्माण किया है, जबकि वह परमात्मा स्वयं मे अवर्ण और अरूप है। उसने अग्नि, हवा, मिट्टी, पानी आदि तरह-तरह के व्यवहार में आने वाले तत्वों का निर्माण किया है। अपने आप वह इन सब में इस प्रकार मिल गया है कि अब उसे अलग करके कोई उसे नहीं देख सकता!
- पुस्तक : चित्रावली (पृष्ठ 1)
- संपादक : माया अग्रवाल
- प्रकाशन : कला मंदिर
- संस्करण : 1985
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