अतिशय प्रियरण कुशल वीर, आज बिदा हम देते हैं।
जाओ प्रिय उस घोर सभा में बन कठोर कह देते हैं॥
जहाँ शत्रुदल उमड़ रहा है प्रबल सिंधु की लहर समान।
जहाँ वीरवर उठे हुए हैं ले लेने को सुयश महान॥
जहाँ शत्रु शोणित प्यासी असी अपनी प्यास बुझाती है।
सहस दामिनी मान दमन कर चमक-चमक रह जाती है॥
जहाँ गर्जना सुन तोपों की घन होते लज्जित भयमान।
जाओ वीर वहीं उस रण में रणचंडी करती हँसि गान॥
है अतृप्त युगनैन समारे यद्यपि तब दर्शन से आज।
किन्तु चाहना यही प्रबल है होवे पूर्ण तुम्हारा काज॥
विजय हो उस कठिन युद्ध में सब जन करैं तुम्हारा मान।
मंदभाग्य जर्मन भी देखे हैं ये भारतीय संतान॥
हम रखेंगे याद वीरवर किंतु हमें तुम जाना भूल।
जिससे समरभूमि में जाकर अड़ो न चिंता बढ़े न शूल॥
यह वीरता आत्मार्पण तुम कर देना भारत रणधीर।
कर्मवीर के कार्य यही हैं कर्मक्षेत्र में हो न अधीर॥
जहाँ धनुर्धर अर्जुन से थे जहाँ भीम से थे बलवान्।
वही भूमि भारत है वीरो, तुम भी वही वीर संतान॥
आज सफल जा करो समर में प्रिय माता का स्तनपान।
अहो दिखाओ अब दुनिया को अपने पूर्व समय का मान॥
बने मूर्तिवत् शत्रु तुम्हारे लखै जान का सुभ शयतान॥
रक्त-पियासी साथ क्षुधा के, रण में गड़ी शांति के काज।
अहो वीरवर श्री काली का खाली खप्पर भर दो आज॥
तब हितलिए प्रसून बंधुवर, सुर गण जोह रहे हैं बाट।
जाओ जाओ महासमर में रण का बढ़े चौगुना ठाट॥
जाओ विजयिनी के सुपुत्र तुम विजयी ही होंगे सब काल।
जहाँ तुम्हारी करें प्रतीक्षा विजयलक्ष्मी लेकर जयमाल॥
जब बंधु सब स्थानों पर सदा मान तुम पाओगे।
अचल सुहागिन के जीवन तुम विजयी फिर बन जाओगे॥
फिर आना फिर दर्शन होंगे बड़े हर्ष आदर के साथ।
विजय पताका हम देखेंगे प्यारे बंधु तुम्हारे हाथ॥
'लली' पराजय कभी न होगी जिसके हों यह भाव महान।
सदा सुशोभित रहे हृदय पर प्रिय भारत का ऊँचा मान॥
- पुस्तक : स्त्री कवि-संग्रह (पृष्ठ 54)
- संपादक : ज्योतिप्रसाद मिश्र 'निर्मल'
- रचनाकार : तोरण देवी लली
- प्रकाशन : साहित्य-भवन-लिमिटेड, प्रयाग
- संस्करण : 1940
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