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यह जीवन-पत्र अलक्षित

ye jiwan patr alakshait

राघवेंद्र शुक्ल

राघवेंद्र शुक्ल

यह जीवन-पत्र अलक्षित

राघवेंद्र शुक्ल

और अधिकराघवेंद्र शुक्ल

    होती विदग्ध अंतर की

    ज्वाला से उर-वैतरणी।

    जिसकी ऊष्मा से भीगी,

    नयनों की उर्वर धरणी।

    कुछ नए सपन उगते हैं,

    आशा नव पल्लव जनती।

    सागर-तट-नियति पटों पर

    रेखाएँ मिटतीं-बनतीं।

    जब-जब भी अवसर आया,

    जीवन में सुमन खिलाने,

    यह निठुर नियति है लगती

    पौधों के मूल हिलाने।

    आरंभ करें उपक्रम को

    उपवन से जब संगम का।

    अंतर-भावों की जलधि में

    उठता मैनाक अहम का।

    मन विश्वामित्र का हठ है,

    जीवन त्रिशंकु-सा अटका।

    हर पल इक युद्ध सदृश है

    पर पता नहीं प्रतिभट का।

    दिन-दिन पर बाले सूरज,

    पर भास नहीं होता है,

    जाने किस श्याम विवर में

    जीवन-प्रकाश खोता है।

    ग्रहता ज्योतित आशा को

    अज्ञात तिमिर का दानव,

    अपने ही व्यूह के आगे

    नतमस्तक होता मानव।

    ऐसा हो कि मन-उपवन

    ढलता जाए मरुथल में।

    ढल जाए भरी दुपहरी

    जीवन की, अस्ताचल में।

    रथ है पर रथी विरथ है,

    धनु है, शिंजिनी शिथिल है।

    समरांगण की चौसर पर

    अब दाँव लगा तिल-तिल है।

    स्वर अपने कभी डराते,

    औरों के स्वर से हटकर।

    उर का प्रतिरोध, स्वरण है

    पोथी-पत्री रट-रटकर।

    यह सच में बड़ा मनोहर

    सुंदर संसार तुम्हारा।

    मेरा अंतर-अनुशासन

    इसके शासन से हारा।

    प्रचलन उन्मुख प्रतियोगी

    प्रतिपग प्रतिकूल प्रवर्तन।

    प्रण प्रतिभट, प्राण प्रलय-सा

    प्रस्तुत करता है नर्तन।

    यह शर्तों की दुनिया है,

    पाँवों का पाश यही है।

    धरती तो दे दी लेकिन

    ऊपर आकाश नहीं है।

    यह प्रेषित पग जिस पथ से

    आया इस दूर विपथ पर।

    पदचिह्न मेटते तक, फिर

    लो फिरा विचित्र सुरथ पर।

    तोड़ो विधि, शिव-धनु जैसे,

    बहती सरिता पलटा लो।

    यह जीवन-पत्र अलक्षित

    प्रेषक! फिर लौटा लो।

    स्रोत :
    • रचनाकार : राघवेंद्र शुक्ल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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