सभ्यता के वस्त्र चिथड़े हो गए हैं
sabhyata ke wastra chithDe ho gaye hain
राघवेंद्र शुक्ल
Raghvendra Shukla
सभ्यता के वस्त्र चिथड़े हो गए हैं
sabhyata ke wastra chithDe ho gaye hain
Raghvendra Shukla
राघवेंद्र शुक्ल
और अधिकराघवेंद्र शुक्ल
कुछ अंह का गान गाते रह गए।
कुछ सहमते औ' लजाते रह गए।
सभ्यता के वस्त्र चिथड़े हो गए हैं,
हम प्रतीकों को बचाते रह गए।
वेद मंत्रों की धुनों पर धूर्तता
सज्जनों का होम करती जा रही है,
शून्य मूँदे नैन अपने पथ चले
मूक धरती नृत्य करती जा रही है।
तोड़ अंतस के शिवालय हम सभी
नभ-देवताओं को बुलाते रह गए।
नीड़ के प्यासे परिंदों को लगा
इस बार बादल से गिरेंगे तृण नए।
इस बार हमने आँच बदली है नई
इस बार नभ में सिंधु-जल-जत्थे नए।
बूँद गिरना तो रहा, गरजे जलद,
हम नीड़ के सुर बड़बड़ाते रह गए।
यूँ मना है जश्न उनकी जीत का,
आह के स्वर दब गए हैं शोर में।
कौन-सा षड्यंत्र खेला चाँद ने
एक भी तारा न आया भोर में।
घुल गई हर साँस में है रातरानी
हम सुबह के गीत गाते रह गए।
कर्म से ज़्यादा ज़रूरी है प्रदर्शन,
कह रहे श्रीकृष्ण अब के पार्थ से।
धर्म की भाषा ने बदला व्याकरण,
नीति अपने अर्थ लेती स्वार्थ से।
सत्य है नेपथ्य में बंधक बना,
मंच बस मिथकों के नाते रह गए।
हम निरंतर सभ्य होते जा रहे
छोड़कर सिद्धांत सारे सभ्यता के।
रुचते हमको कहाँ हैं अब यथार्थ
हम समर्थक हैं तो केवल भव्यता के।
यूँ गिरे उनके हवा-निर्मित महल
कान अब तक सनसनाते रह गए।
जड़ लिए हैं स्वप्न उन्होंने हमारे
राजसिंहासन के पायों में कपट से।
छोड़कर मँझधार में माँझी हमारे
खे रहे हैं नाव बैठे सिंधु-तट से।
कर लिया अनुबंध रजनी से सुबह ने
हम रात भर दीपक जलाते रह गए।
- रचनाकार : राघवेंद्र शुक्ल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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