थी खिली पलाश-द्रमाली-सी
संध्या सुहासिनी की लाली।
मिल गई प्रमाली थी दोनों
आने वाली जाने वाली।
हो गई दिशाएँ रंजित-सी
इस अरुण मनोज्ञ प्रमाली से।
पर निकल पड़ी काली रजनी
संध्या की सुंदर लाली से।
दिनमणि की जो किरणें दिन में
थीं फैली जग के कण-कण में।
वे ही जाकर निशि के नभ में
हँसती-सी थी नारायण में।
इस निभृत निशा की गोदी में
सो रहे सृष्टि के कण-कण थे।
बस तारागण ही आपस में
कर रहे मौन-संभाषण थे।
क्या प्रसव-वेदना से प्राची
रमणी का आनन लाल हुआ?
धीरे-धीरे गगनस्थल में
प्रकटित सुंदर शशि-बाल हुआ।
खेलने लगा सुंदर शशि-शशि
मणि-जटित गगन के आँगन में।
तारावलि उसका प्रभा देख
खिल गई मुदित होकर मन में।
शशि ने सारे जगतीतल पर
निज कीर्ति-कौमुदी छिटकाई।
चढ़ किरण-जाल के वाहन पर
वह हंसवाहिनी-सी आई।
वसुधा से आकर लिपट गई
वह बाल सखी-सी मन भाई।
मिलकर उससे पुलकित-सी हो
वसुधा मन ही मन मुसकाई।
अब प्रकृति-नटी की रंगभूमि
सज गई खूब है मन भाई।
है शशि की किरणों ने उस पर
चाँदनी-चाँदनी फैलाई।
क्या शुभ-हासिनी शरद्-घटा
अवनी पर आकर है छाई?
अथवा गिर कर नभ से कोई
सुरबाला हुई धराशाई?
सोती अबलाओं के समीप
वातायन से वह जाती है।
प्रिय शशि-समान उनके सुंदर
मुख चूम-चूम सुख पाती है।
निर्जन विपिनों में घुस-घुस कर
किसकी तलाश वह करती है?
वह देश-देश में ग्राम में
किसके लिए विचरती है?
नभ से अवनी पर आने से
मानों वह भी थक जाती है।
श्रम-स्वेद-कणों से ओस-बिंदु
धरणीतल पर टपकाती है।
सागर-सरिता की लहरों से
हिल-मिल कर क्रीड़ा करती है।
वन-उपवन और सरोवर में
वह प्रभा-पुंज-सी भरती है।
शैलों के शिखरों पर बैठी
वह मंद-मंद मुसकाती है।
मृदु पवन-विकंपित द्रुमावली
झुक-झुक कर चँवर डुलाती है।
जिसके समीप वह जाती है
उसका स्वरूप धर लेती है।
है बहु-रूपिणी बाल-छवि-सी
छवि-छवि में छवि भर देती है।
लेटी सुमनों की शय्या पर
वह है वियोगिनी बाला-सी।
वसुधा के वक्षस्थल पर है
शुचि स्वेत सुमन की माला-सी।
प्रतिबिंबित चंचल जल में हो
शशि-प्रभा और भी खिलती है।
सागर की ऊँची लहरों पर
चाँदनी चाँद से मिलती है।
पर्वत की चोटी पर चढ़कर
वह करती कौन इशारा है?
संदेश भेजती क्या कुछ वह
शशि को किरणों के द्वारा है?
फूलों के मृदु उर में घुस कर
निज जीवन भूला करती है।
हिलते कोमल किसलय-दल पर
वह झूला झूला करती है।
नक्षत्रों से ज्योतित नभ की
वह है अति सुंदर छाया-सी।
संसार अचेतन है जिसमें
है परब्रह्म की माया-सी।
- पुस्तक : कादम्बिनी (पृष्ठ 54)
- रचनाकार : गोपालशरण सिंह
- प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
- संस्करण : 1937
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