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मेरे पथ में रात अँधेरी

mere path me.n raat a.ndherii

गोपाल सिंह नेपाली

गोपाल सिंह नेपाली

मेरे पथ में रात अँधेरी

गोपाल सिंह नेपाली

और अधिकगोपाल सिंह नेपाली

    खोज रहा झिलमिल प्रकाश मैं, मेरे पथ में रात अँधेरी

    मैं धुन में चल पड़ा अकेला बनकर साधक निर्मम-निष्ठुर

    मेरे चारों ओर तिमिर, पर आलोकित मेरा अंत:पुर

    है झर-झर निर्झर-सी मेरी जीवन-सरिता आकुल-आतुर

    जितनी काली आज यामिनी, उतना उज्ज्वल है मेरा उर

    जीवन बनती चली जा रही, यह मेरी छन-छन की देरी

    भाव-भरी सुंदर विभावरी, निद्रा-आलस के सम्मोहन

    मधुर श्रांति की मधुमाया में उलझ रहा था मतवाला मन

    जब शीतल-शीतल झोंकों से रोमांचित हो गिरिवन-उपवन

    तब क्या संभव था कि जागता मेरी आँखों में नवचेतन

    पर क्षण-भर भी सुख-शय्या पर झिंप सकीं ये आँखें मेरी

    जब मैं बाहर हुआ द्वार से नभ में झलक रहे थे तारे

    दीवट पर रख दिए दीप थे घूम किसी ने द्वारे-द्वारे

    छाया-सी निष्पंद मौन हो, शीतल मंद समीर-सहारे

    मेरी नाव पड़ी थी सम्मुख उस अगाध तम-सिंधु किनारे

    तिमिर-गर्भ की ओर उलछकर मैंने अपनी नौका फेरी

    निज आँखों का स्वप्न खोजता चला आज मैं अंधकार में

    नौका मेरी मचल-मचलकर चली खेलती बीच धार में

    मैंने देखा, लहराता है तम का सागर प्रबल ज्वार में

    दुनिया रहती उन्मन-उन्मन युग-युग से उसके कछार में

    मुझे चाहिए ज्योति-दीप्ति पर मिलती मुझको पीर घनेरी

    जीवन के इस अंधकार में अब पूछो, मैंने क्या पाया

    जगती की सौंदर्य-मूर्ति पर कुटिल नियति की काली छाया

    ज्योति माँगती है चिरप्यासी तिमिरग्रस्त जगती की काया

    मिलती उसको दैवयोग से कभी खुलने वाली माया

    अभी पड़ा मैं वहीं जहाँ पर संध्या ने थी धूल बिखेरी

    स्रोत :
    • पुस्तक : संकलित कविताएँ (पृष्ठ 83)
    • संपादक : नंदकिशोर नंदन
    • रचनाकार : गोपाल सिंह नेपाली
    • प्रकाशन : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
    • संस्करण : 2013

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