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प्रयाग विश्वविद्यालय

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गोपालशरण सिंह

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    बहती तुममें है ज्ञान-सत्य-

    गंगा-यमुना की विमल धार।

    करती संतत तुममें निवास

    है सरस्वती पावन उदार।

    हे युक्त-प्रांत के वर वैभव!

    उपकृत तुमसे मानव-समाज।

    हे तीर्थराज के गुरु-गौरव!

    हो बने स्वयं तुम तीर्थराज।

    रहता है सबके लिए नित्य

    उन्मुक्त तुम्हारा दीर्घ द्वार।

    आते हैं जो ले असद्भाव

    जाते हैं वे ले सद्विचार।

    मोहांध अज्ञ मानव-समाज

    पाता है तुमसे दृष्टि-दान।

    हो नित्य कराते शशि-समान

    वसुधा को तुम पीयूष-पान।

    छात्रों के प्राणधार दिव्य

    हैं तुमको प्राणधार छात्र।

    विद्वानों से सेवित सदैव

    विद्वानों के सम्मान-पात्र।

    है तनिक तुममें पक्षपात

    छू गया तुमको भेद-भाव।

    है प्रेम तुम्हारा सार्वभौम

    तुम पूर्ण कर रहे हो अभाव।

    हो विमल स्रोत तुम वह पवित्र

    निकले जिससे राष्ट्रीय भाव।

    हो तुम सदैव जग-जीवन पर

    डाला करते अपना प्रभाव।

    हो तुम वह वीर गायक जिसने

    गाया पहले था देश-राग।

    हो तुम वह शिक्षक मानव ने

    सीखा जिससे अनुराग-त्याग।

    दी सींच सुधा ऐसी तुमने

    मानवता ने पाया विकास।

    इस भाँति जगाई ज्ञान-ज्याति

    घर-घर में फैल गया प्रकाश।

    गुरुवर्य! तुम्हारे प्रांगण में

    अंकुरित हुआ था देश-प्रेम।

    थी जगी भावना वह ललाम

    पोषक जिसकी है विश्व-क्षेम।

    जकड़ा जिससे था नर-समाज,

    दी तुमने वह शृंखलता तोड़।

    सदियों का टूटा प्रेम-सूत्र,

    है तुमने फिर से दिया जोड़।

    कर चुके बहुत-से तुम प्रदान,

    भारत को अनुपम मुकुट-रत्न।

    शिक्षा देते हो तुम अमोल,

    है धन्य तुम्हारा शुभ प्रयत्न।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संचिता (पृष्ठ 166)
    • रचनाकार : गोपालशरण सिंह
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1939

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