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भूल-भुलैया

bhool bhulaiya

गोपालशरण सिंह

गोपालशरण सिंह

भूल-भुलैया

गोपालशरण सिंह

खोज-खोज थक गए पाते तुम्हें कहीं हम,

खेलेंगे यह भूल-भुलैया और नहीं हम।

अच्छा तुमने हमें रात दिन है भटकाया,

कभी यहाँ तो कभी वहाँ तुमने अटकाया।

भटक रहे हैं इधर-उधर हम मारे-मारे,

किंतु आती सदय हृदय में दया तुम्हारे।

तरस रहे हैं तृपित विलोचन ये बेचारे,

छान चुके हैं धूल जगत की बिना बिचारे।

सभी कहीं हो कहाँ-कहाँ तुमको खोजें हम?

बतलाओं तुम जहाँ वहाँ तुमको खोजें हम।

घर में खोजें तुम्हें या कि निर्जन कानन में?

बाहर खोजें तुम्हें या कि भीतर निज मन में?

जाने हम किस भाँति कहाँ तुम हो छिप जाते?

सबमें तुमको व्याप्त सुधीजन हैं बतलाते।

रहते हो तुम प्रकट किंतु हम देख पाते,

इस कारण से और अधिक हम हैं घबराते।

नाथ! तुम्हारे रूप रंग का है ठिकाना,

पल-पल में तुम वेश बदलते हो मनमाना।

कौन रूप कब धरे हुए हो कैसे जानें?

यदि देखें भी तुम्हें भला कैसे पहचानें?

कंज-रूप में कभी सरोवर में तुम मिलते,

लता-अंक में कभी सुमन बन कर हो खिलते।

पाते तुमको कभी प्रकृति की नई छटा में,

कभी देखते तुम्हें जलद की सजल घटा में।

कभी चपल चंचलालोक बन कर तुम आते,

दृग मिच जाते, दिव्य ज्योति ऐसी फैलाते।

जब तक खुलते नयन शीघ्र तुम हो छिप जाते,

हो जाते हम चकित तुम्हें हैं देख पाते।

सरस मनोहर भावमयी सुंदर कविता में,

रहते हो तुम तेज यथा रहता सविता में।

सहसा हम तल्लीन उसे सुन कर हो जाते,

किंतु छिपे हो तुम्हीं वहाँ यह जान पाते।

यमुना-जल में देख चंद्रमा को प्रतिबिंबित,

होता है सदा हमारे उर में भासित।

कर काली का दमन मोद से हो मदमाते,

कालिंदी से स्वयं तुम्हीं हो निकले आते।

जब प्रभात के समय प्रभाकर प्रकटित होकर,

फैलाता है दीप्ति नील-मणि-शैल-शिखर पर।

आता तब है सदा ध्यान में यही हमारे,

तुम्हीं खड़े हो वहाँ रुचिर पीतांबर धारे।

बहु रंगों के इंद्र-धनुष से भूपित होकर,

जब आता है दृष्टि नभस्थल में नव जलधर।

होता है वह ज्ञात साँवली मूर्ति तुम्हारी,

माला धारण किए विविध मणियों की प्यारी।

कभी रूप तुम दुखी दीन दुर्विध का धारे,

फिरते हो अति मलिन वेश में मारे-मारे।

भर आके हैं नयन देख कर स-करुण चितवन,

हम चीन्हते तुम्हें भूलते हैं निज तन-मन।

नृपति-रूप में कभी हाथ में लेकर शासन,

करते जग में न्याय-दया का तुम संस्थापन।

आती है तब याद तुम्हारे राम-राज्य की,

भ्रांति-हीन नय-लीन शांति-सुख-धाम राज्य की।

निशि में हम हो खड़े जलधि के सुंदर तट पर,

कभी होते तृप्त देख वह दृश्य मनोहर।

जब तुम बन राकेश संग लेकर सब तारे,

करते विविध विहार वीचियों में मुद-धारे।

किसी शांत एकांत कुंज के जब अंतर में

करता कोकिल मधुर गान है पंचम स्वर में।

यह भ्रम खाकर तब विमुग्ध हम हैं हो जाते,

छिपे हुए बस तुम्हीं वहाँ हो वेणु बजाते।

निज किरणों से प्रात सूर्य जब हमें जगाते,

तुमको आया जान चौंक कर हम जग जाते।

किंतु कुमुद को विमुद देख संशय हो आता,

क्योंकि तुम्हारा उदय सभी को है मुददाता।

मन-मंदिर में कभी हमारे तुम घुस आते,

ऐसा आते हम तनिक भी आहट पाते।

करके हृदय-कपाट बंद तुम हो छिप जाते,

बाहर तुमको कहीं पाकर हम घबराते।

हो तुम केवल एक सभी लोकों से न्यारे,

पर असंख्य दीखते जगत में रूप तुम्हारे।

रहता संतत एक सूर्य ही गगन-स्थल में,

पर अगणित प्रतिबिंब देख पड़ते हैं जल में

पर अगणित प्रतिबिंब देख पड़ते हैं जल में।

दृग-पलनों में झूल रही है मूर्ति तुम्हारी,

पर सदैव है चर्म-चक्षु से रहती न्यारी।

रहते हो तुम हृदय-धाम में सदा हमारे,

प्राणों में है पड़े रुचिर पद-चिह्र तुम्हारे।

स्रोत :
  • पुस्तक : ज्योतिष्मती (पृष्ठ 105)
  • रचनाकार : गोपालशरण सिंह
  • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
  • संस्करण : 1938

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