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अनारकली

anarkali

गोपालशरण सिंह

और अधिकगोपालशरण सिंह

    कमनीय अनारकली जो

    थी राजमहल की दासी—

    वह बनी कुमार-हृदय की

    स्वामिनी प्रेम की प्यासी।

    दिव में दिवांगनाएँ भी

    थीं उसे देख कर लज्जित;

    छबि के प्रकाश में उसने

    नृप-सदन किया आलोकित।

    सुकुमार-कुमार-हृदय की

    स्वर्गीय प्रेम की प्रतिमा;

    ली छीन अनारकली ने

    नव-कुसुम-कली की सुषमा।

    अपने इस भाग्योदय पर

    वह फूली नहीं समाई;

    पर निठुर नियति ने आकर

    काँटों की सेज बिछाई।

    प्रिय से मिलने को सरिता

    थी बहती उछल-उछल कर;

    पर मिल सकी सागर से

    था खड़ा बीच में भूधर।

    कामना-कुसुम तो फूले

    पर कभी बहार आई;

    प्रिय-प्रेम-वारि-सिंचित भी

    वह हेम-लता मुरझाई।

    बंदी बन गई अभागी

    रह सकी सुख के घर में;

    स्वप्नों का स्वर्ण-निकेतन

    हो गया नष्ट पल भर में।

    युवती की यौवन-सरिता

    मिल गई दुःख-सागर में;

    जीवन की मधुर उमंगें

    हो गई बंद गागर में।

    दुर्लभ आकाश-सुमन-सा

    था उसे मिलन प्रियतम का;

    पर किया प्रेम से पालन

    जीवन के प्रेम-नियम का।

    पल-पल प्रियतम की झाँकी

    देखा करती थी मन में;

    बस एक यही सुख पाया

    उसने बंदी जीवन में।

    थे छिपे प्रेम-दुख दोनों

    उसके भींगे आँचल में;

    रहती थी सदा निमज्जित

    वह निज अथाह दृग-जल में।

    छिप गए मनोरथ-तारे

    उर-नभ के दुख-बादल में।

    केवल कुमार-स्मृति-चपला

    अंकित थी अंतस्तल में।

    दुख-दलित प्राण अबला के

    थे नहीं निकल भी जाते;

    बस प्रेम-पयोनिधि में थे

    डूबते और उतराते।

    कारागृह से तो छूटी

    पर गई अकेली वन में;

    ले गई साथ स्मृति कोमल

    केवल कुमार की मन में।

    प्रासाद-वासिनी भावी

    भारत-भूपति की प्यारी;

    दुखिया अनार गिरि-वन में

    घूमी विपत्ति की मारी।

    थी जहाँ-जहाँ वह जाती

    रँगती थी भूमि विपिन में;

    पैरों के छाले आँसू

    थे बहा रहे दुर्दिन में।

    लतिकाओं से वह लिपटी

    फूलों को व्यथा सुनाई;

    पर कहीं अनारकली ने

    थोड़ी भी शांति पाई।

    सरिता के शीतल जल में

    दिन भर रह गई समाई;

    पर शीतलता तनिक भी

    उसके जीवन में आई।

    सपने में भी प्रिय-दर्शन

    वह कभी नहीं थी पाती;

    करने पर भी चेष्टाएँ

    उसको थी नींद आती।

    खाना-पीना सब छोड़ा

    ईश्वर में ध्यान लगाया;

    तो भी सलीम तरुणी से

    जा सका हाय, भुलाया।

    दे सकी जिसको जीवन

    वह बनी उसकी दासी;

    पर हँसी-ख़ुशी से तरुणी

    चढ़ गई प्रेम की फाँसी।

    पी गई गरल का प्याला

    प्रिय-अधर-सुधा की प्यासी;

    छिप गई शीघ्र संध्या की

    वह करुण-अरुण आभा-सी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मानवी (पृष्ठ 100)
    • रचनाकार : गोपालशरण सिंह
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1938

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