शठकोप संस्कृत का प्रकांड विद्वान था। वह ज्ञानी था किंतु धन का उसके पास नितांत अभाव था। वह जिस नगर में रहता था वहाँ लक्ष्मीपुत्रों की कमी थी अत: शठकोप को पर्याप्त धन नहीं मिल पाता था। उसकी इच्छा थी कि वह ढेर सारा धन कमा कर एक श्रेष्ठ संस्कृत विद्यालय आरंभ करे जिसमें दूर-दूर से छात्र पढ़ने के लिए आएँ। उसकी इस इच्छा को पूर्ण न होते देखकर उसकी पत्नी ने उसे सलाह दी कि उसे अन्य नगरों में जाकर धन कमाने का प्रयास करना चाहिए।
अपनी पत्नी की सलाह मानकर धन कमाने के उद्देश्य से शठकोप अन्य नगरों में गया जहाँ उसने अपने पांडित्य का प्रदर्शन करके लक्ष्मीपुत्रों को प्रभावित किया और अपार धन कमाया। कमाए हुए धन को उसने एक कपड़े में पोटली की भाँति बाँध लिया और अपने नगर की ओर लौट चला। वह यह सोचकर अत्यंत प्रफुल्लित था कि संस्कुत विद्यालय खोलने का अपना सपना अब पूरा कर सकेगा। दुर्भाग्यवश गंटि नामक चोर शठकोप के पीछे लग गया। उसने शठकोप से परिचय प्राप्त किया और उसके साथ-साथ चलने लगा। फिर उचित अवसर पाकर उसकी पोटली चुरा ली।
शठकोप के दुख का ठिकाना न रहा। अपने नगर में प्रवेश करते ही उसके धन की पोटली किसी ने चुरा ली थी।
शठकोप घर आकर मौन रहने लगा। उसकी पत्नी को उसके इस व्यवहार पर बहुत आश्चर्य हुआ।
‘क्या बात है? मैं देख रही हूँ कि जब से आप दूसरे नगरों का भ्रमण करके आए हैं तब से बहुत कम बोलते हैं और उदास दिखाई देते हैं।’ शठकोप की पत्नी ने उससे पूछा।
‘नहीं, कोई बात नहीं है।’ शठकोप ने टालना चाहा। उसे लगा कि पत्नी को पता चलेगा तो वह भी दुखी होगी।
‘क्या अन्य नगरों में आपके पांडित्य की कोई पूछ नहीं हुई?’ शठकोप की चतुर पत्नी ने दूसरे ढंग से पूछना शुरू किया।
‘नहीं, ऐसी बात नहीं है। सभी नगरों में मेरे पांडित्य को अपार सराहना मिली।’ शठकोप ने कहा।
‘तो उन लोगों ने आपके पांडित्य को सराहा भर होगा लेकिन धन-वन नहीं दिया होगा।’ पत्नी ने कहा।
‘नहीं, उन्होंने मुझे अपार धन दिया। इतना धन कि मैं एक श्रेष्ठ संस्कृत विद्यालय खोल सकूँ।’ शठकोप ने उत्साहित होकर कहा।
‘तो फिर वह अपार धन कहाँ गया? क्या आप वह धन उन्हीं नगरों के भिखारियों को दे आए? हाँ, आपने अवश्य यही किया होगा।’ पत्नी ने कहा।
‘नहीं, मैं वह धन साथ ला रहा था किंतु नगर में प्रविष्ट होते ही किसी ने वह धन चुरा लिया।’ पत्नी की बातों में उलझ कर शठकोप असली बात बता बैठा।
‘अरे, फिर भी आप शोक मनाने बैठे हैं? आपको तो चाहिए कि आप जाकर इस बारे में न्यायाधीश मर्यादाराज से चर्चा करें। वे आपको आपका धन अवश्य दिला देंगे।’ पत्नी ने शठकोप को समझाया।
‘तुम ठीक कहती हो। दुख के कारण मैं कुछ भी ठीक से सोच नहीं पा रहा था। तुमने मुझे रास्ता दिखाकर अच्छा किया।’ यह कहकर शठकोप ने अपनी पत्नी को धन्यवाद दिया और न्यायाधीश मर्यादाराज के पास पहुँचा। शठकोप ने चोरी के संबंध में सारी बातें शठकोप को बता दीं।
शठकोप ने नगर के सभी चोरों को पकड़वा कर शठकोप के सामने ला खड़ा किया। शठकोप ने गंटि चोर को देखते ही पहचान लिया।
‘यही है वह चोर जिसने मेरी पोटली चुराई।’ शठकोप, गंटि को देखते ही उत्तेजित हो उठा।
‘यह सरासर झूठ बोलता है। मैंने इसे आज से पहले कभी देखा ही नहीं।’ गंटि ने मुकरते हुए कहा।
चूँकि गंटि ने जिस समय शठकोप की पोटली चुराई थी उस समय शठकोप सुस्ताने के लिए रुका था और उसे झपकी लग गई थी। अत: उसने गंटि को चोरी करते स्वयं नहीं देखा था। साक्ष्य और गवाह के अभाव में गंटि को दोषमुक्त ठहराया गया। गंटि ने स्वयं भी निर्दोष होने का अच्छा प्रदर्शन किया।
मर्यादाराज ने गंटि को दोषमुक्त कर तो दिया किंतु वह समझ गया कि गंटि ही असली चोर है और उसी ने शठकोप की पोटली चुराई है। शठकोप ने दो गुप्तचर भिखारी के वेश में गंटि के पीछे लगा दिए।
गंटि जब अपने घर पहुँचा तो उसने घमंड में आकर हँसते हुए अपनी पत्नी को न्यायालय की कार्यवाही के बारे में बताया।
‘देखो, मैंने कैसा उल्लू बनाया सभी को।’ गंटि ने कहा।
‘तो वह पोटली है कहाँ? उसे तो मैंने भी नहीं देखा? गंटि की पत्नी ने गंटि से पूछा।
‘वह इस तकिए में रखी हुई है जिसे मैं प्रतिदिन अपने सिर के नीचे रखता हूँ। गंटि ने अपनी पत्नी को बताया।
यह बात मर्यादाराज के गुप्तचरों ने भी सुन ली। वे तत्काल दौड़कर मर्यादाराज के पास गए और उन्होंने तकिए के बारे में मर्यादाराज को जानकारी दी। तब मर्यादाराज ने शठकोप और गंटि को बुलवाया।
‘देखो गंटि, मेरे पास एक कसौटी है जिस पर मैं प्रतिदिन अपने द्वारा किए गए न्याय को कस कर देखता हूँ। यदि मेरा न्याय सही होता है तो कसौटी मुझे बधाई देती है किंतु यदि मैं अज्ञानवश न्याय में कोई त्रुटि कर जाता हूँ तो न्याय की कसौटी मुझे अपराधी और उसके अपराध के बारे में सब कुछ बता देती है जिससे मैं अपनी त्रुटि सुधार सकूँ। आज मेरे न्याय की कसौटी ने मुझे बताया है कि तुमने शठकोप की धन की पोटली चुराई है और उसे अपनी तकिए में छिपाकर रखा है। अब तुम सीधे-सीधे पोटली शठकोप को दे दो अन्यथा तुम्हें आजन्म कारावास और एक हज़ार कोड़े लगाए जाने का दंड दिया जाएगा।’ मर्यादाराज ने गंटि से कहा।
मर्यादाराज की बात सुनकर गंटि भयवश थरथर काँपने लगा।
‘मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई, मुझे क्षमा कर दीजिए।’ कहते हुए गंटि मर्यादाराज के चरणों पर गिर पड़ा और उसने शठकोप की धन की पोटली शठकोप को लौटा दी।
अपनी धन की पोटली मिलने पर शठकोप बहुत प्रसन्न हुआ। आगे चलकर उसने एक बहुत बड़ा संस्कृत विद्यालय स्थापित किया जिसमें दूर-दूर से छात्र आकर शिक्षा ग्रहण करने लगे। तब तक गंटि भी समझ गया था कि न्याय की कसौटी से कोई अपराधी नहीं बच सकता है। अत: उसने चौर्यकर्म का त्याग कर ईमानदारी से जीवन व्यतीत करना प्रारंभ कर दिया।
- पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 228)
- संपादक : शरद सिंह
- प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
- संस्करण : 2009
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