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अलगोझा बाजे, मछली नाचे

algojha baje, machhli nache

एक मछुआरा था। वह प्रतिदिन प्रातः अपनी डोंगी और जाल लेकर निकलता और शाम तक ढेर सारी मछलियाँ लेकर लौटता। इस प्रकार वह और उसके पत्नी-बच्चे आराम से गुज़र-बसर कर रहे थे। पत्नी भी अपने पति से बहुत प्रसन्न थी। लेकिन एक दिन उसे अपने मायके की याद सताने लगी। उसने मछुआरे से कहा कि वह अपने मायके जाना चाहती है।

‘ठीक है जाओ! लेकिन ख़ाली हाथ जाना अच्छा नहीं लगेगा अतः ऐसा करो कि मैं शाम तक ढेर सारी मछलियाँ पकड़ लाऊँगा, उनमें से आधी मछलियाँ तुम अपने मायके ले जाना।’ मछुआरे ने कहा।

यह सुनकर मछुआरे की पत्नी बहुत ख़ुश हुई। मछुआरा जाल और डोंगी लेकर मछली पकड़ने निकला। अभी उसने अपना जाल पानी में डाला ही था कि उधर एक साधू निकला। वह अलगोझा बजाता जा रहा था और गीत गाता जा रहा था—‘अलगोझा बाजे, मछली नाचे...।’

अलगोझे की आवाज़ से मछलियाँ जाल के पास भी नहीं आईं और शाम तक एक भी मछली नहीं फँसी। यह देखकर मछुआरे को बहुत निराशा हुई। उसने घर जाकर अपनी पत्नी से कहा कि आज एम अलगोझा वाले साधू के कारण मछलियाँ नहीं मिल सकी हैं अतः तुम आज मत जाओ। कल चली जाना। पत्नी मान गई।

दूसरे दिन मछुआरा फिर अपना जाल और डोंगी संभाले मछलियाँ पकड़ने डट गया। अभी उसने जाल डाला ही था कि वही साधू फिर गया। वह वही गाना गा रहा था—‘अलगोझा बाजे, मछली नाचे...।’

मछुआरे ने ध्यान से देखा कि अलगोझा की धुन पर मछलियाँ नाच रही थीं। इसीलिए वे जाल से दूर थीं। यह देखकर मछुआरे को बहुत क्रोध आया।

‘बाबा, तुम यहाँ अपना अलगोझा मत बजाओ। तुम्हारे अलगोझा बजाने और गाने से मछलियाँ मेरे जाल में नहीं फँस रही हैं जबकि मुझे मछलियों की बहुत आवश्यकता है।’ मछुआरे ने साधू से कहा।

‘यदि मेरे अलगोझा बजाने से और गाने से मछलियाँ नाचती हैं तो इसमें मेरा क्या दोष? मैं क्यों कहीं और जाऊँ? साधू ने वहाँ से जाने से मना कर दिया।

‘यह ठीक नहीं है।’ अब मछुआरे को और अधिक क्रोध आने लगा।

‘ऐसा है तो तुम कहीं और जाकर मछलियाँ पकड़ो।’ साधू ने कहा।

‘मैं क्यों कहीं और जाऊँ?’ मछुआरे ने कहा। इस प्रकार दोनों में कहा-सुनी होने लगी।

विवाद बढ़ा तो दोनों राजा के पास पहुँचे। राजा ने दोनों की बातें सुनी।

‘तुम यहाँ मेरी राजसभा में मछली नचाकर दिखाओ तो मैं मानूँ कि तुम्हारे अलगोझा बजाने और गाने से मछलियाँ नाचती हैं।’ राजा ने कहा।

राजा के आदेश पर एक बड़े बर्तन में पानी भरवाकर उसमें मछलियाँ रखवाकर राजसभा में व्यवस्था की गई। साधू ने अलगोझा बजाना और गाना शुरू किया—‘अलगोझा बाजे, मछली नाचे...।’

बस, फिर क्या था? अलगोझा और साधू का स्वर सुनकर मछलियाँ नाचने लगीं। राजा ने देखा तो वह मान गया कि साधू की बात सच है। उसी समय एक सिपाही दौड़ा-दौड़ा आया।

‘महाराज-महाराज, अनर्थ होते-होते बचा।’ सिपाही ने हाँफते हुए कहा।

‘क्या हुआ? स्पष्ट बताओ।’ राजा ने पूछा।

‘हुआ यह महाराज, कि आप राजसभा के बाद जिस अटारी पर बैठते हैं वह अटारी टूटकर गिर गई। यदि आज आप प्रतिदिन की भाँति सही समय पर अटारी पर पहुँच गए होते तो आप भी अटारी के साथ नीचे गिर जाते और तब जाने क्या अनर्थ हो जाता।’ सिपाही ने कहा।

राजा समझ गया कि अलगोझा वाले साधू के कारण उसे देर हुई जिससे उसकी जान बच गई। उसी समय उसके मन में एक विचार आया। उसने तत्काल एक सिपाही मछुआरे की पत्नी के मायके भेजा।

‘महाराज, मछुआरे की पत्नी का मायका तो दो दिन पहले बाढ़ में डूब गया। यदि वह भी वहाँ होती तो वह भी डूब जाती।’ सिपाही ने लौटकर बताया।

यह सुनकर राजा आर मछुआरा दोनों समझ गए कि साधू का अलगोझा सुनकर मछलियाँ इसीलिए नाचने लगती हैं क्योंकि उन्हें पता चल जाता है कि अलगोझा बजने के कारण व्यक्ति विपत्ति से बचने जा रहा है।

मछुआरे ने साधू से अपने कटु व्यवहार के लिए क्षमा माँगी तथा राजा ने साधू को बहुत-सा उपहार दिया। जब मछुआरे की पत्नी को पता चला तो उसने भी साधू का आदर-सत्कार किया।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 247)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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