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नींद न जाने टूटी खाट

neend na jane tuti khaat

बहुत समय पहले की बात है। विक्रमादित्य नाम के बहुत बड़े प्रतापी राजा थे। प्रजा उनकी दरियादिली से बहुत ख़ुश थी। उनकी न्यायप्रियता की लोग मिसाल देते नहीं थकते थे।

एक बार की बात है। एक वर्ष बहुत भारी वर्षा हुई। मानो सारे के सारे बादल आज ही रीत जाने पर तुले हों। राजा विक्रमादित्य की न्यायप्रियता और त्याग की भावना के कारण प्रजा भी त्याग की भावना से ओत-प्रोत थी। कहीं भी और कभी भी यदि पास-पड़ोस में किसी को किसी तरह की तकलीफ़ होती थी, ज़रूरत पड़ती थी, लोग बढ़-चढ़कर अपने पड़ोसी की मदद के लिए आगे आते थे। अपने कष्ट-परेशानियों को भूलकर लोग पहले दूसरे की मदद करते थे; दूसरे को कोई कष्ट हो इस बात की चिंता से परेशान होते थे।

एक बार जब तेज़ और मूसलाधार बारिश हो रही थी, तब एक आदिवासी दंपत्ति भी अपनी झोंपड़ी में विश्राम कर रहा था। पर बारिश इतनी तेज़ थी कि वे जागे रहने को विवश थे। सोना तो दूर, सोने की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं हो रही थी। झोंपड़ी के तिनके-तिनके से पानी टपक रहा था। बचाव का तो कोई साधन था और ही कोई रास्ता। ले-देकर उनके पास एक चटाई थी। अब वो बिछाएँ या उसे ओढ़े, उन्हें कुछ समझ नहीं रहा था। इसी उधेड़बुन में वे थे कि क्या करें क्या करें।

अंततः दोनों ने चटाई ओढ़ ली। पानी से बचाव तो क्या होना था, पर दोनों को इस बात का संतोष हो गया कि बचने के लिए उन्होंने कोई उपाय तो किया। चटाई ओढ़े कुछ ही देर हुई थी कि आदिवासी की पत्नी असहज महसूस करने लगी। पति ने कारण जानना चाहा। जब उसने बोला तो चिंताओं का पहाड़ शब्दों में उतर आया। वह बोली, “हमने तो चटाई ओढ़ ली और बरसात से बचाव कर लिया लेकिन बेचारे वे ग़रीब लोग क्या करेंगे?” तो ऐसा था राजा विक्रमादित्य के त्याग का प्रभाव।

एक बार राजा विक्रमादित्य को किसी कारणवश अपना राज्य छोड़ना पड़ा। पहले कई दिन तो वे इधर-उधर भटकते रहे। उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करें क्या करें। ऐसे ही घूमते-घूमते वे एक दूसरे राज्य हौलापुर में घुस आए। वहाँ भी क्या करते, कुछ समझ नहीं रहा था। कभी यहाँ तो कभी वहाँ। इसी बीच उन्हें पता चला कि हौलापुर का राजा प्रतिदिन रात को अपने शयनकक्ष के द्वार पर एक नया पहरेदार नियुक्त करता है। सुबह में पहरेदार को राजदरबार में बुलाकर एक प्रश्न पूछता है। उत्तर दे पाने के कारण उस पहरेदार को फाँसी की सज़ा हो जाती है। इस प्रकार शयनकक्ष पर पहरा देने वाला कोई भी पहरेदार जीवित नहीं बचता था, क्योंकि कोई भी उत्तर नहीं दे पाता था।

यह जानकर राजा विक्रमादित्य को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे आख़िर यह कैसा राजा है जो बिना किसी ग़लती के ही पहरेदार को फाँसी दे देता है और यदि पहरेदार की ग़लती होती भी है, तो उसकी जानकारी तो प्रजा को होनी ही चाहिए कि पहरेदार को अमुक ज़िम्मेदारी दी गई थी और अब उस ज़िम्मेदारी का निर्वहण उस पहरेदार ने भली-भाँति नहीं किया, इसलिए उसे फाँसी दे दी गई। और ऐसा कौन-सा कार्य सौंपा जाता है पहरेदारों को कि कोई भी पहरेदार अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहण नहीं कर पाता है। राजा विक्रमादित्य के मन में कई प्रश्नों पर कई कोणों से एक साथ उधेड़बुन चल रहा था।

अचानक विक्रमादित्य के दिमाग़ में एक विचार कौंधा कि क्यों वह ख़ुद इस रहस्य का पता करने की कोशिश करें! यदि मैं ऐसा नहीं करूँगा तो बेचारे निर्दोष व्यक्ति की रोज़ जान जाती रहेगी।

राजा विक्रमादित्य जो अब तक अति सामान्य व्यक्ति का जीवनयापन कर रहे थे, वे एक दिन हौलापुर के राजा के दरबार में पहुँचे। उन्होंने राजा से अनुनय-विनय किया कि वह उसे अपने शयनकक्ष का पहरेदार नियुक्त कर लें। राजा ने इस बाबत उनसे कई सवाल पूछे। सभी सवालों का विक्रमादित्य ने पूरे आत्मविश्वास से जवाब दिया। उनके उत्तर से राजा ने संतुष्ट होकर शयनकक्ष की पहरेदारी की ज़िम्मेदारी दे दी। उसी दिन से विक्रमादित्य ने अपनी नई ज़िम्मेदारी का बड़ी उत्सुकता से निर्वहण शुरू कर दिया। शयनकक्ष की पहरेदारी के समय वह काफ़ी चौकस थे और एक-एक गतिविधि पर उनकी नज़र थी। आख़िरकार जान जाने की भी नौबत सकती थी।

जब आधी रात हो गई तो विक्रमादित्य ने राजा को शयनकक्ष से बाहर निकलते देखा। वे भी चुपके-चुपके राजा का पीछा करने लगे। देखते क्या हैं कि राजा छुप-छुप कर सधे क़दमों से श्मशान घाट की ओर जा रहा है। देखते ही देखते राजा श्मशान घाट पहुँचा जहाँ पहले से ही डोम की पुत्री बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। राजा वहीं रखी एक टूटी खाट पर बैठ गया। वह डोम की पुत्री के साथ प्यार भरी बातें करने लगा।

कुछ समय बाद राजा ने उससे बोला कि भूख लगी है। कुछ खाने का है तो दो। डोम की पुत्री ने कहा कि अभी खाने के लिए तो मेरे पास शवों पर चढ़ाए गए मिठाई-बतासे ही हैं। राजा वही मिठाई-बतासे खाकर उसी टूटी खाट पर सो गया। भिनसारे यानी की सुबह के क़रीब चार बज रहे होंगे। राजा उठा, उस डोम की पुत्री से गले मिला और उससे विदा लेकर राजमहल की ओर चल दिया। राजा अपने राजमहल पहुँचे उससे पहले ही विक्रमादित्य ने राजमहल पहुँचकर शयनकक्ष की पहरेदारी शुरू कर दी। राजा वहाँ पहुँचा, इधर-उधर नज़र दौड़ाई और अपने शयनकक्ष में चला गया। किसी से कुछ कहा नहीं।

अगले दिन राजदरबार लगा तो पूर्व की भाँति ही राजा ने अपने शयनकक्ष के पहरेदार को बुलाने का आदेश दिया। विक्रमादित्य ख़ुशी-ख़ुशी राजदरबार में हाज़िर हो गया। राजा बोला, “कहो सिपाही रात की बात।” इस पर विक्रमादित्य ने कहा, “महाराज! संकेत रूप में कहता हूँ। इससे आपके राजदरबार की और आपकी गरिमा बनी रहेगी। आख़िरकार मैं तो आपका सेवक ठहरा।” विक्रमादित्य ने आगे कहा,

“भूख जाने जूठी भात,

नींद जाने टूटी खाट

और प्रेम जाने जात कुजात।”

इशारे-इशारे में विक्रमादित्य ने सब कुछ कह दिया जो उसने देखा था। उसकी बात सुनकर राजा सब कुछ समझ गया। विक्रमादित्य की बात से राजा बहुत प्रभावित हुआ। कुछ दिनों बाद ही उस राजा ने राजपाट त्याग दिया और तपस्या करने जंगल की ओर प्रस्थान कर गया। इधर विक्रमादित्य भी अपने राज्य लौट गए।

स्रोत :
  • पुस्तक : बिहार की लोककथाएँ (पृष्ठ 51)
  • संपादक : रणविजय राव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2019
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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