प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा चौथी के पाठ्यक्रम में शामिल है।
एक दिन भीखूभाई का मन नारियल खाने का हुआ। ताज़ा-मुलायम, कसा हुआ, शक्कर के साथ। म्म्म्म! उसके बारे में सोचते ही भीखूभाई ने अपने होंठों को चटकारा, “वाह क्या मीठा-मीठा सा स्वाद होगा!”
लेकिन एक छोटी-सी समस्या थी। घर में तो एक भी नारियल नहीं था।
“ओहो! अब मुझे बाज़ार जाना पड़ेगा,” उन्होंने अपनी पत्नी लाभुबेन से कहा।
लाभुबेन अपने कंधे उचक उचकाकर बोलीं, “खाना है तो जाना है।”
एक समस्या और थी।
भीखूभाई ने कहा, “पैसे ख़र्च करने पड़ेंगे,”
लाभुबेन बोली, “हाँ। पैसे तो ख़र्च करने पड़ेंगे।”
अब तक तो तुम्हें पता लग गया होगा कि भीखूभाई ज़रा कंजूस थे। वे सीधे खेत में बूढ़े बरगद के नीचे जाकर बैठ गए और सोचने लगे, “क्या करूँ? मैं क्या करूँ?”
मगर नारियल खाने के लिए जी ऐसा ललचाया कि वे जल्दी घर वापस लौटकर लाभुबेन से बोले, “अच्छा, मैं बाज़ार तक हो आता हूँ। पता तो चले कि नारियल आजकल कितने में बिक रहे हैं।”
जूते पहनकर, छड़ी उठाकर, भीखूभाई निकल पड़े।
बाज़ार में लोग अपने-अपने कामों में लगे थे। भीखूभाई ने इधर कुछ देखा, उधर कुछ उठाया और दाम पूछा। देखते-पूछते, वे नारियलवाले के पास पहुँच गए।
“ऐ नारियलवाले, नारियल कितने में दोगे?” भीखूभाई ने पूछा।
नारियलवाले ने कहा, “बस, दो रुपए में काका,” “बस, दो रुपए! “भीखूभाई ने आँखें फैलाकर कहा, “बहुत ज़्यादा है। “एक रुपए में दे दो।”
नारियलवाले ने कहा, “ना जी ना। दो रुपए, सही दाम। ले लो या छोड़ दो,” “ठीक है! ठीक है!” भीखूभाई बड़बड़ाए।
अच्छा तो बताओ, एक रुपए में कहाँ मिलेगा?”
नारियलवाले ने कहा, “यहाँ से थोड़ी दूर जो मंडी है, वहाँ शायद मिल जाए।”
सो भीखूभाई उसी तरफ़ चल पड़े। “चलो देख लेते हैं,” वे अपने आप से बोले, “टहलने का मौक़ा है और रुपए भर बचत भी हो जाएगी।” ख़ुशी से घुरघुराते भीखूभाई ने छड़ी को ज़मीन पर थपथपाया।
मंडी में कोलाहल फैला हुआ था। व्यापारियों की ऊँची-ऊँची आवाज़े गूँज रही थीं।
माथे का पसीना पोंछकर भीखूभाई ने इधर-उधर ताका। नारियलवाले को देखकर पूछा, “अरे भाई, एक नारियल कितने में दोगे?”
“सिर्फ़ एक रुपया, काका,” नारियलवाले ने जवाब दिया, “जो चाहो ले जाओ। जल्दी।”
“शू छे भाई?” भीखूभाई ने कहा, “यह क्या? मैं इतनी दूर से आया हूँ और तुम पूरा एक रुपया माँग रहे हो। पचास पैसे काफ़ी हैं। मैं इस नारियल को लेता हूँ और तुम, यह लो, पकड़ो, पचास पैसे।”
नारियलवाले ने झट भीखूभाई के हाथ से नारियल को छीन लिया और बोला, “माफ़ करो, काका। एक रुपया या फिर कुछ नहीं।” लेकिन भीखूभाई का निराश चेहरा देखकर बोला, “बंदरगाह पर चले जाओ, हो सकता है वहाँ तुम्हें पचास पैसे में मिल जाए।”
भीखूभाई अपनी छड़ी से टेक लगाकर सोचने लगे, “आख़िर पचास पैसे तो पूरे पचास पैसे हैं। वैसे भी मेरी टाँगों में अभी भी दम है।”
पैरों को घसीटते हुए, भीखूभाई चलने लगे। हर दो क़दम पर रुककर, जेब में से बड़ा सफ़ेद रुमाल निकालकर, वे अपना पसीना पोंछते।
सागर के किनारे एक नाववाला बैठा था। उसके सामने दो-चार नारियल पड़े थे। “अरे भाई, एक नारियल कितने में दोगे?” भीखूभाई ने पूछा और कहा, “ये तो काफ़ी अच्छे दिखते हैं।”
“काका, यह कोई पूछने वाली बात है? केवल पचास पैसे” नाववाले ने कहा।
“पचास पैसे!” भीखूभाई मानो हैरानी से हक्के-बक्के हो गए। “इतनी दूर से पैदल आया हूँ। इतना थक गया हूँ और तुम कहते हो पचास पैसे? मेरी मेहनत बेकार हो गई। ना भाई ना! पचास पैसे बहुत ज़्यादा है। मैं तुम्हें पच्चीस पैसे दूँगा। यह लो, रख लो।” ऐसा कहते हुए, भीखूभाई झुककर नारियल उठाने ही वाले थे...
नाववाले ने कहा, “नीचे रख दो। मेरे साथ कोई सौदा-वौदा नहीं चलेगा।”
थोड़ी देर बाद उसने भीखूभाई की ओर ध्यान से देखा और ज़रा ठंडे दिमाग़ से बोला, “सस्ते में चाहिए? नारियल के बग़ीचे में चले जाओ। वहाँ ढेर सारे मिल जाएँगे, मनपसंद दाम में।”
भीखूभाई ने फिर अपने आप को समझाया, “इतनी दूर आया हूँ। अब बग़ीचे तक जाने में हर्ज़ ही क्या है?” सच बात तो यह थी कि वे काफ़ी थक चुके थे। मगर पच्चीस पैसे बचाने के ख़्याल से ही उनमें फुर्ती आ गई।
भीखूभाई ने सोचा, “दोगुना ज़्यादा चलना पड़ेगा, पर चार आने बच भी तो जाएँगे और फिर, कोई भी चीज़ मुफ़्त में कहाँ मिलती है?”
भीखूभाई नारियल के बग़ीचे में पहुँच गए। वहाँ के माली को देखकर उससे पूछा, “यह नारियल कितने में बेचोगे?”
माली ने जवाब दिया, “जो पसंद आए ले जाओ, काका, बस, पच्चीस पैसे का एक। देखो, कितने बड़े-बड़े हैं!”
“हे भगवान! पच्चीस पैसे! पूरा रास्ता पैदल आने के बाद भी! जूते घिस गए, पैर थक गए और अब पैसे भी देने पड़ेंगे? मेरी बात मानो, एक नारियल मुफ़्त में ही दे दो, हाँ। देखो, मैं कितना थक गया हूँ!”
भीखूभाई की बात सुनकर माली ने कहा, “अरे, काका। मुफ़्त में चाहिए! न? यह रहा पेड़ और वह रहा नारियल। पेड़ पर चढ़ जाओ और जितने चाहो तोड़ लो। वहाँ नारियल की कोई कमी नहीं है। पैसे तो मेरी मेहनत के हैं।”
“सच? जितना चाहूँ ले लूँ?” भीखूभाई तो ख़ुशी से फूले न समाए। “मेरा यहाँ तक आना बेकार नहीं गया!”
उन्होंने जल्दी-जल्दी पेड़ पर चढ़ना शुरू कर दिया। पेड़ पर चढ़ते-चढ़ते भीखूभाई ने सोचा “बहुत अच्छे! मेरी तो क़िस्मत खुल गई। जितने नारियल चाहे तोड़ लूँ और पैसे भी न दूँ। क्या बात है!”
भीखूभाई ऊपर पहुँच गए। फिर वे टहनी और तने के बीच आराम से बैठ गए और दोनों हाथों को आगे बढ़ाने लगे सबसे बड़े नारियल को तोड़ने के लिए। ज़्ज़्ज़्क! पैर फिसल गए। भीखूभाई ने एकदम से नारियल को पकड़ लिया। उनके दोनों पैर हवा में झूलते रह गए।
“ओ माँ! अब मैं क्या करूँ?”
भीखूभाई चिल्लाने लगे, “अरे भाई! मदद करो!” उन्होंने नीचे खड़े माली से विनती की।
माली ने कहा, “वो मेरा काम नहीं, काका, मैंने सिर्फ़ नारियल लेने की बात की थी। बाक़ी सब तुम्हारे और तुम्हारे नारियल के बीच का मामला है। पैसे नहीं, ख़रीदना नहीं, बेचना नहीं, और मदद नहीं। सब कुछ मुफ़्त।” तभी ऊँट पर सवार एक आदमी वहाँ से गुज़रा।
“अरे ओ!” भीखूभाई ज़ोर-ज़ोर से बुलाने लगे, “ओ ऊँटवाले! मेरे पैर वापस पेड़ पर टिका दो न! बड़ी मेहरबानी होगी।”
ऊँटवाले ने सोचा, “चलो, मदद कर देता हूँ। मेरा क्या जाता है।”
ऊँट की पीठ पर खड़े होकर उसने भीखूभाई के पैरों को पकड़ लिया। ठीक उसी समय ऊँट को हरे-हरे पत्ते नज़र आए। पत्ते खाने के लालच में ऊँट ने गर्दन झुकाई और अपनी जगह से हट गया।
बस, वह आदमी ऊँट की पीठ से फिसल गया! अपनी जान बचाने के लिए उसने भीखूभाई के पैरों को कसकर पकड़ लिया। अब दोनों क्या करते? इतने में एक घुड़सवार आया।
“अरे, सांभ्लो छो!” पेड़ से लटके दोनों पुकारने लगे। “सुनो भाई, कोई बचाओ! बचाओ! घुड़सवार को देखकर भीखूभाई ने दुहाई दी, “ओ मेरे भाई, मुझे पेड़ पर वापस पहुँचा दो।”
“हम्म्म। एक मिनट भी नहीं लगेगा। मैं घोड़े की पीठ पर चढ़कर इनकी मदद कर देता हूँ” यह सोचकर घुड़सवार घोड़े पर उठ खड़ा हुआ।
लेकिन कौन कहता है कि घोड़ा ऊँट से बेहतर है? हरी-हरी घास दिखाई देने पर तो दोनों एक जैसे ही हैं। घास के चक्कर में घोड़ा ज़रा आगे बढ़ा और छोड़ चला अपने मालिक को ऊँटवाले के पैरों से लटकते हुए।
एक, दो और अब तीनों के तीनों-झूलते रहे नारियल के पेड़ से।
“काका! काका! कसके पकड़े रहना, हाँ”, घुड़सवार ने पसीना-पसीना होते हुए कहा, “जब तक कोई बचाने वाला न आए, कहीं छोड़ न देना। मैं आपको सौ रुपए दूँगा।”
“काका! काका!” अब ऊँटवाले की बारी थी। “मैं आपको दो सौ रुपए दूँगा, लेकिन नारियल को छोड़ना नहीं।”
“सौ और दो सौ! बाप रे बाप, तीन सौ रुपए!” भीखूभाई का सिर चकरा गया। “इतना! इतना सारा पैसा!” ख़ुशी से उन्होंने अपनी दोनों बाहों को फैलाया... और नारियल गया हाथ से छूट।
धड़ाम से तीनों ज़मीन पर गिरे घुड़सवार, ऊँटवाला और भीखूभाई। भीखूभाई अपने आप को सँभाल ही रहे थे कि एक बहुत बड़ा नारियल उनके सिर पर आ फूटा।
बिल्कुल मुफ़्त।
ek din bhikhubhai ka man nariyal khane ka hua. taza mulayam, kasa hua, shakkar ke saath. mmmm! uske bare mein sochte hi bhikhubhai ne apne hothon ko chatkara, “vaah kya mitha mitha sa svaad hoga!” lekin lekin ek chhoti si samasya thi. ghar mein to ek bhi nariyal nahin tha.
“oho! ab mujhe bazar jana paDega,” unhonne apni patni labhuben se kaha.
labhuben apne kandhe uchak uchkakar bolin, “khana hai to jana hai. ”
ek samasya aur thi.
bhikhubhai ne kaha, “paise kharch karne paDenge,”
labhuben boli, “haan. paise to kharch karne paDenge. ”
ab tak to tumhein pata lag gaya hoga ki bhikhubhai zara kanjus the. ve sidhe khet mein buDhe bargad ke niche ja kar baith ge aur sochne lage, “kya karun? main kya karun?”
magar nariyal khane ke liye ji aisa lalchaya ki ve jaldi ghar vapas lautkar labhuben se bole, “achchha, main bazar tak ho aata hoon. pata to chale ki nariyal ajkal kitne mein bik rahe hain. ”
bazar mein log apne apne kamon mein lage the. bhikhubhai ne idhar kuch dekha, udhar kuch uthaya aur daam puchha. dekhte puchhte, ve nariyalvale ke paas pahunch ge.
“ai nariyalvale, nariyal kitne mein doge?” bhikhubhai ne puchha.
nariyalvale ne kaha, “bas, do rupe mein kaka,” “bas, do rupe! “bhikhubhai ne ankhen phailakar kaha, “bahut zyada hai. “ek rupe mein de do. ”
nariyalvale ne kaha, “na ji na. do rupe, sahi daam. le lo ya chhoD do,” “theek hai! theek hai!”bhikhubhai baDabDaye.
achchha to batao, ek rupe mein kahan milega?”
nariyalvale ne kaha, “yahan se thoDi door jo manDi hai, vahan shayad mil jaye. ”
so bhikhubhai usi taraf chal paDe. “chalo dekh lete hain,” ve apne aap se bole, “tahalne ka mauqa hai aur rupe bhar bachat bhi ho jayegi. ” khushi se ghuraghurate bhikhubhai ne chhaDi ko zamin par thapthapaya.
“batata aalu, batata alu! kanda pyaaz kanda pyaaz! gajar gajar gajar! kobi bandgobhi kobi bandgobhi!”
mathe ka pasina ponchhkar bhikhubhai ne idhar udhar taka. nariyalvale ko dekhkar puchha, “are bhai, ek nariyal kitne mein doge?”
“sirf ek rupya, kaka,” nariyalvale ne javab diya, “jo chaho le jao. jaldi. ”
“shu chhe bhai?” bhikhubhai ne kaha, “yah kyaa? main itni door se aaya hoon aur tum pura ek rupya maang rahe ho. pachas paise kafi hain. main is nariyal ko leta hoon aur tum, ye lo, pakDo, pachas paise. ”
nariyalvale ne jhat bhikhubhai ke haath se nariyal ko chheen liya aur bola, “maaf karo, kaka. ek rupya ya phir kuch nahin. ” lekin bhikhubhai ka nirash chehra dekhkar bola, “bandargah par chale jao, ho sakta hai vahan tumhein pachas paise mein mil jaye. ”
bhikhubhai apni chhaDi se tek lagakar sochne lage, “akhir pachas paise to pure pachas paise hain. vaise bhi meri tangon mein abhi bhi dam hai. ”
pairon ko ghasitte hue, bhikhubhai chalne lage. har do qadam par rukkar, jeb mein se baDa safed rumal nikalkar, ve apna pasina ponchhte.
sagar ke kinare ek navvala baitha tha. uske samne do chaar nariyal paDe the. “are bhai, ek nariyal kitne mein doge?” bhikhubhai ne puchha aur kaha, “ye to kafi achchhe dikhte hain. ”
“kaka, ye koi puchhne vali baat hai? keval pachas paise” navvale ne kaha.
“pachas paise!” bhikhubhai mano hairani se hakke bakke ho ge. “itni door se paidal aaya hoon. itna thak gaya hoon aur tum kahte ho pachas paise? meri mehnat bekar ho gai. na bhai na! pachas paise bahut zyada hai. main tumhein pachchis paise dunga. ye lo, rakh lo. ” aisa kahte hue, bhikhubhai jhukkar nariyal uthane hi vale the. . .
navvale ne kaha, “niche rakh do. mere saath koi sauda vauda nahin chalega. ”
thoDi der baad usne bhikhubhai ki or dhyaan se dekha aur zara thanDe dimagh se bola, “saste mein chahiye? nariyal ke baghiche mein chale jao. vahan Dher sare mil jayenge, manapsand daam mein. ”
bhikhubhai ne phir apne aap ko samjhaya, “itni door aaya hoon. ab baghiche tak jane mein harz hi kya hai?” sach baat to ye thi ki ve kafi thak chuke the. magar pachchis paise bachane ke khyaal se hi unmen phurti aa gai.
bhikhubhai ne socha, “doguna zyada chalna paDega, par chaar aane bach bhi to jayenge aur phir, koi bhi cheez muft mein kahan milti hai?”
bhikhubhai nariyal ke baghiche mein pahunch ge. vahan ke mali ko dekhkar usse puchha, “yah nariyal kitne mein bechoge?”
mali ne javab diya, “jo pasand aaye le jao, kaka, bas, pachchis paise ka ek. dekho, kitne baDe baDe hain!”
“he bhagvan! pachchis paise! pura rasta paidal aane ke baad bhee! jute ghis ge, pair thak ge aur ab paise bhi dene paDenge? meri baat mano, ek nariyal muft mein hi de do, haan. dekho, main kitna thak gaya hoon!”
bhikhubhai ki baat sunkar mali ne kaha, “are, kaka. muft mein chahiye! na? ye raha peD aur wo raha nariyal. peD par chaDh jao aur jitne chaho toD lo. vahan nariyal ki koi kami nahin hai. paise to meri mehnat ke hain. ”
“sach? jitna chahun le loon?” bhikhubhai to khushi se phule na samaye. “mera yahan tak aana bekar nahin gaya!”
unhonne jaldi jaldi peD par chaDhna shuru kar diya. peD par chaDhte chaDhte bhikhubhai ne socha “bahut achchhe! meri to qismat khul gai. jitne nariyal chahe toD loon aur paise bhi na doon. kya baat hai!”
bhikhubhai uupar pahunch ge. phir ve tahni aur tane ke beech aram se baith ge aur donon hathon ko aage baDhane lage sabse baDe nariyal ko toDne ke liye. zzzk! pair phisal ge. bhikhubhai ne ekdam se nariyal ko pakaD liya. unke donon pair hava mein jhulte rah ge.
“o maan! ab main kya karun?”
bhikhubhai chillane lage, “are bhai! madad karo!” unhonne niche khaDe mali se vinti ki.
mali ne kaha, “vo mera kaam nahin, kaka, mainne sirf nariyal lene ki baat ki thi. baqi sab tumhare aur tumhare nariyal ke beech ka mamla hai. paise nahin, kharidna nahin, bechna nahin, aur madad nahin. sab kuch muft. ” tabhi uunt par savar ek adami vahan se guzra.
“are o!” bhikhubhai zor zor se bulane lage, “o uuntvale! mere pair vapas peD par tika do na! baDi mehrbani hogi. ”
uuntvale ne socha, “chalo, madad kar deta hoon. mera kya jata hai. ”
uunt ki peeth par khaDe hokar usne bhikhubhai ke pairon ko pakaD liya. theek usi samay uunt ko hare hare patte nazar aaye. patte khane ke lalach mein uunt ne gardan jhukai aur apni jagah se hat gaya.
bas, wo adami uunt ki peeth se phisal gaya! apni jaan bachane ke liye usne bhikhubhai ke pairon ko kaskar pakaD liya. ab donon kya karte? itne mein ek ghuDasvar aaya.
“are, sambhlo chho!” peD se latke donon pukarne lage. “suno bhai, koi bachao! bachao! ghuDasvar ko dekhkar bhikhubhai ne duhai di, “o mere bhai, mujhe peD par vapas pahuncha do. ”
“hammm. ek minat bhi nahin lagega. main ghoDe ki peeth par chaDhkar inki madad kar deta hoon” ye sochkar ghuDasvar ghoDe par uth khaDa hua.
lekin kaun kahta hai ki ghoDa uunt se behtar hai? hari hari ghaas dikhai dene par to donon ek jaise hi hain. ghaas ke chakkar mein ghoDa jara aage baDha aur chhoD chala apne malik ko uuntvale ke pairon se latakte hue.
ek, do aur ab tinon ke tinon jhulte rahe nariyal ke peD se.
“kaka! kaka! kaske pakDe rahna, haan”, ghuDasvar ne pasina pasina hote hue kaha, “jab tak koi bachane vala na aaye, kahin chhoD na dena. main aapko sau rupe dunga. ”
“kaka! kaka!” ab uuntvale ki bari thi. “main aapko do sau rupe dunga, lekin nariyal ko chhoDna nahin. ”
“sau aur do sau! baap re baap, teen sau rupe!” bhikhubhai ka sir chakra gaya. “itna! itna sara paisa!” khushi se unhonne apni donon bahon ko phailaya. . . aur nariyal gaya haath se chhoot.
dhaDam se tinon zamin par gire ghuDasvar, uuntvala aur bhikhubhai. bhikhubhai apne aap ko sanbhal hi rahe the ki ek bahut baDa nariyal unke sir par aa phuta.
bilkul muft.
ek din bhikhubhai ka man nariyal khane ka hua. taza mulayam, kasa hua, shakkar ke saath. mmmm! uske bare mein sochte hi bhikhubhai ne apne hothon ko chatkara, “vaah kya mitha mitha sa svaad hoga!” lekin lekin ek chhoti si samasya thi. ghar mein to ek bhi nariyal nahin tha.
“oho! ab mujhe bazar jana paDega,” unhonne apni patni labhuben se kaha.
labhuben apne kandhe uchak uchkakar bolin, “khana hai to jana hai. ”
ek samasya aur thi.
bhikhubhai ne kaha, “paise kharch karne paDenge,”
labhuben boli, “haan. paise to kharch karne paDenge. ”
ab tak to tumhein pata lag gaya hoga ki bhikhubhai zara kanjus the. ve sidhe khet mein buDhe bargad ke niche ja kar baith ge aur sochne lage, “kya karun? main kya karun?”
magar nariyal khane ke liye ji aisa lalchaya ki ve jaldi ghar vapas lautkar labhuben se bole, “achchha, main bazar tak ho aata hoon. pata to chale ki nariyal ajkal kitne mein bik rahe hain. ”
bazar mein log apne apne kamon mein lage the. bhikhubhai ne idhar kuch dekha, udhar kuch uthaya aur daam puchha. dekhte puchhte, ve nariyalvale ke paas pahunch ge.
“ai nariyalvale, nariyal kitne mein doge?” bhikhubhai ne puchha.
nariyalvale ne kaha, “bas, do rupe mein kaka,” “bas, do rupe! “bhikhubhai ne ankhen phailakar kaha, “bahut zyada hai. “ek rupe mein de do. ”
nariyalvale ne kaha, “na ji na. do rupe, sahi daam. le lo ya chhoD do,” “theek hai! theek hai!”bhikhubhai baDabDaye.
achchha to batao, ek rupe mein kahan milega?”
nariyalvale ne kaha, “yahan se thoDi door jo manDi hai, vahan shayad mil jaye. ”
so bhikhubhai usi taraf chal paDe. “chalo dekh lete hain,” ve apne aap se bole, “tahalne ka mauqa hai aur rupe bhar bachat bhi ho jayegi. ” khushi se ghuraghurate bhikhubhai ne chhaDi ko zamin par thapthapaya.
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mathe ka pasina ponchhkar bhikhubhai ne idhar udhar taka. nariyalvale ko dekhkar puchha, “are bhai, ek nariyal kitne mein doge?”
“sirf ek rupya, kaka,” nariyalvale ne javab diya, “jo chaho le jao. jaldi. ”
“shu chhe bhai?” bhikhubhai ne kaha, “yah kyaa? main itni door se aaya hoon aur tum pura ek rupya maang rahe ho. pachas paise kafi hain. main is nariyal ko leta hoon aur tum, ye lo, pakDo, pachas paise. ”
nariyalvale ne jhat bhikhubhai ke haath se nariyal ko chheen liya aur bola, “maaf karo, kaka. ek rupya ya phir kuch nahin. ” lekin bhikhubhai ka nirash chehra dekhkar bola, “bandargah par chale jao, ho sakta hai vahan tumhein pachas paise mein mil jaye. ”
bhikhubhai apni chhaDi se tek lagakar sochne lage, “akhir pachas paise to pure pachas paise hain. vaise bhi meri tangon mein abhi bhi dam hai. ”
pairon ko ghasitte hue, bhikhubhai chalne lage. har do qadam par rukkar, jeb mein se baDa safed rumal nikalkar, ve apna pasina ponchhte.
sagar ke kinare ek navvala baitha tha. uske samne do chaar nariyal paDe the. “are bhai, ek nariyal kitne mein doge?” bhikhubhai ne puchha aur kaha, “ye to kafi achchhe dikhte hain. ”
“kaka, ye koi puchhne vali baat hai? keval pachas paise” navvale ne kaha.
“pachas paise!” bhikhubhai mano hairani se hakke bakke ho ge. “itni door se paidal aaya hoon. itna thak gaya hoon aur tum kahte ho pachas paise? meri mehnat bekar ho gai. na bhai na! pachas paise bahut zyada hai. main tumhein pachchis paise dunga. ye lo, rakh lo. ” aisa kahte hue, bhikhubhai jhukkar nariyal uthane hi vale the. . .
navvale ne kaha, “niche rakh do. mere saath koi sauda vauda nahin chalega. ”
thoDi der baad usne bhikhubhai ki or dhyaan se dekha aur zara thanDe dimagh se bola, “saste mein chahiye? nariyal ke baghiche mein chale jao. vahan Dher sare mil jayenge, manapsand daam mein. ”
bhikhubhai ne phir apne aap ko samjhaya, “itni door aaya hoon. ab baghiche tak jane mein harz hi kya hai?” sach baat to ye thi ki ve kafi thak chuke the. magar pachchis paise bachane ke khyaal se hi unmen phurti aa gai.
bhikhubhai ne socha, “doguna zyada chalna paDega, par chaar aane bach bhi to jayenge aur phir, koi bhi cheez muft mein kahan milti hai?”
bhikhubhai nariyal ke baghiche mein pahunch ge. vahan ke mali ko dekhkar usse puchha, “yah nariyal kitne mein bechoge?”
mali ne javab diya, “jo pasand aaye le jao, kaka, bas, pachchis paise ka ek. dekho, kitne baDe baDe hain!”
“he bhagvan! pachchis paise! pura rasta paidal aane ke baad bhee! jute ghis ge, pair thak ge aur ab paise bhi dene paDenge? meri baat mano, ek nariyal muft mein hi de do, haan. dekho, main kitna thak gaya hoon!”
bhikhubhai ki baat sunkar mali ne kaha, “are, kaka. muft mein chahiye! na? ye raha peD aur wo raha nariyal. peD par chaDh jao aur jitne chaho toD lo. vahan nariyal ki koi kami nahin hai. paise to meri mehnat ke hain. ”
“sach? jitna chahun le loon?” bhikhubhai to khushi se phule na samaye. “mera yahan tak aana bekar nahin gaya!”
unhonne jaldi jaldi peD par chaDhna shuru kar diya. peD par chaDhte chaDhte bhikhubhai ne socha “bahut achchhe! meri to qismat khul gai. jitne nariyal chahe toD loon aur paise bhi na doon. kya baat hai!”
bhikhubhai uupar pahunch ge. phir ve tahni aur tane ke beech aram se baith ge aur donon hathon ko aage baDhane lage sabse baDe nariyal ko toDne ke liye. zzzk! pair phisal ge. bhikhubhai ne ekdam se nariyal ko pakaD liya. unke donon pair hava mein jhulte rah ge.
“o maan! ab main kya karun?”
bhikhubhai chillane lage, “are bhai! madad karo!” unhonne niche khaDe mali se vinti ki.
mali ne kaha, “vo mera kaam nahin, kaka, mainne sirf nariyal lene ki baat ki thi. baqi sab tumhare aur tumhare nariyal ke beech ka mamla hai. paise nahin, kharidna nahin, bechna nahin, aur madad nahin. sab kuch muft. ” tabhi uunt par savar ek adami vahan se guzra.
“are o!” bhikhubhai zor zor se bulane lage, “o uuntvale! mere pair vapas peD par tika do na! baDi mehrbani hogi. ”
uuntvale ne socha, “chalo, madad kar deta hoon. mera kya jata hai. ”
uunt ki peeth par khaDe hokar usne bhikhubhai ke pairon ko pakaD liya. theek usi samay uunt ko hare hare patte nazar aaye. patte khane ke lalach mein uunt ne gardan jhukai aur apni jagah se hat gaya.
bas, wo adami uunt ki peeth se phisal gaya! apni jaan bachane ke liye usne bhikhubhai ke pairon ko kaskar pakaD liya. ab donon kya karte? itne mein ek ghuDasvar aaya.
“are, sambhlo chho!” peD se latke donon pukarne lage. “suno bhai, koi bachao! bachao! ghuDasvar ko dekhkar bhikhubhai ne duhai di, “o mere bhai, mujhe peD par vapas pahuncha do. ”
“hammm. ek minat bhi nahin lagega. main ghoDe ki peeth par chaDhkar inki madad kar deta hoon” ye sochkar ghuDasvar ghoDe par uth khaDa hua.
lekin kaun kahta hai ki ghoDa uunt se behtar hai? hari hari ghaas dikhai dene par to donon ek jaise hi hain. ghaas ke chakkar mein ghoDa jara aage baDha aur chhoD chala apne malik ko uuntvale ke pairon se latakte hue.
ek, do aur ab tinon ke tinon jhulte rahe nariyal ke peD se.
“kaka! kaka! kaske pakDe rahna, haan”, ghuDasvar ne pasina pasina hote hue kaha, “jab tak koi bachane vala na aaye, kahin chhoD na dena. main aapko sau rupe dunga. ”
“kaka! kaka!” ab uuntvale ki bari thi. “main aapko do sau rupe dunga, lekin nariyal ko chhoDna nahin. ”
“sau aur do sau! baap re baap, teen sau rupe!” bhikhubhai ka sir chakra gaya. “itna! itna sara paisa!” khushi se unhonne apni donon bahon ko phailaya. . . aur nariyal gaya haath se chhoot.
dhaDam se tinon zamin par gire ghuDasvar, uuntvala aur bhikhubhai. bhikhubhai apne aap ko sanbhal hi rahe the ki ek bahut baDa nariyal unke sir par aa phuta.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।