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हाँ और न

haan aur na

एक युवक था जिसका नाम था सुतल। उसे बहुत बोलने की आदत थी जिसके कारण वह कभी-कभी उल्टी-सीधी बातें भी कह जाया करता था। सुतल की माँ उसकी इस आदत से बहुत परेशान रहती थी।

सुतल का विवाह हुए कुछ ही समय हुआ था। एक दिन सुतल के लिए उसकी ससुराल से निमंत्रण आया। सुतल अपनी ससुराल जाने को तैयार हुआ तो उसकी माँ ने उसे समझाया कि ‘बेटा, तू बहुत बोलता है लेकिन अब अपनी ससुराल जाकर इतना मत बोलना। नहीं तो अच्छा नहीं लगेगा। वहाँ तो तू बस हाँ या कहकर काम चलाना।’

सुतल ने माँ की यह सीख अपने मन में बिठा ली। रास्ते में सुतल ने सोचा कि यह मुझे कैसे पता चलेगा कि कब मुझे ‘हाँ’ बोलना है और कब मुझे ‘न’ बोलना है। उसने तय किया कि वह एक बार ‘हाँ’ बोलेगा और दूसरी बार ‘न’ बोलेगा।

ससुराल पहुँचने पर सुतल की ख़ूब आवभगत हुई। सास ने सुतल को प्यार से अपने पास बिठाया और पूछा, ‘गाँव में सब ठीक तो है न?’

‘हाँ!’ सुतल ने कहा।

‘घर में सब मंगल है?’

‘नहीं!’ सुतल बोला।

‘हैं? कहीं मेरी बेटी बीमार तो नहीं है?

‘हाँ’

यह सुनकर सुतल की सास सकते में गई। उसने घबराए हुए स्वर में पूछा, वह जीवित तो है न?’

‘नहीं!’ सुतल ने हाँ और नहीं के क्रम में नहीं कह दिया।

इतना सुनते ही सुतल की ससुराल में रोना-पीटना मच गया।

सुतल की सास, ससुर, साले, सालियाँ आदि सभी सुतल के घर जा पहुँचे। वहाँ देखा कि सुतल की पत्नी अच्छी-भली बैठी है। तब उन्हें सुतल से उसके उत्तर के बारे में पूछा।

‘माँ ने कहा था कि केवल हाँ और बोलना। इसीलिए मैं एक बार ही कहता था और दूसरी बार कहता था। सुतल ने भोलेपन से जवाब दिया।

यह सुनकर सभी हँस पड़े और ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर लौट गए।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 315)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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