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अवधी लोकगीत : सारा कटक दल बइठ है

awadhi lokgit ha sara katak dal baith hai

रोचक तथ्य

संदर्भ—हनुमान द्वारा समुद्रोल्लंघन।

सारा कटक दल बइठ है, बीरा धरा एक पान कै,

हनोमान उठाय लिहा, सुमिरि नाम भगवान कै।

जौ परभू अग्या हम पाई,

छन मा खोज सिया कै लाई।

सभा बइठ बहुरंगी हो, रघुबर जी के संगी।।1।।

ताल ठोंकि दल कूदे, बीरा सभा बीच खाय के,

हाँथ जोरि बिनती करउँ, पइयाँ परउँ सिर नाय के।

अतनी अरज परभू मोरि सुनि लीजै,

कुछ पहिचान आपनी दीजै।

जवन चीज बहुरंगी हो, रघुबर जी के संगी।।2।।

करि अभिलाख रघुनाथ मुन्दर दीन्ह हाथ कै,

कहेउ कुल जायके, मुन्दर दिहेउ मात को

पीठि ठोंकि रघुबर समझावै,

पीछे राम कटक दल आवै।

लंका किहेउ जाय लंकी हो, रघुबर जी के संगी।।3।।

एतना उनके तेज बढ़ा कोऊ ठहरै आँच माँ,

बाढ़ समुन्दर कुदिगे बन्दर, एकै कुलाँच माँ।

देखि कै सुरसा मुँह फैलावै,

आज अहार हमैं कुछ आवै।

रूप धरे, पतलंकी हो, रघुबर जी के संगी।।4।।

साँस मा समेट लइगे, फंका एक मार के,

उद्र बीच खलभल मची, निकरे तन फार के।

तुलसीदास कीरति यह गावै,

जब हनोमान लंका चढ़ि आवै।

लंका करै लंकी हो, रघुबर जी के संगी।।5।।

किष्किंधा में सारा वानर-दल बैठा है, उसके सामने पान का बीड़ा रखा हुआ है। भगवान के नाम का स्मरण कर हनुमान जी ने उठा लिया। फिर रामजी से कहा—हे स्वामी! यदि मैं आपकी आज्ञा पाऊँ तो शीघ्र ही सीता जी को खोज लाऊँ। सभा में बहुत लोग बैठे हैं जो रामजी के साथी हैं।।1।।

सभा में बीड़ा खाकर वे ताल ठोंककर कूदे। फिर राम से कहा—मैं हाथ जोड़कर विनय करता हूँ और सिर झुकाकर पाँव पड़ता हूँ। आप मेरी इतनी प्रार्थना सुन लीजिए कि आप अपनी कुछ पहचान दीजिए, जो वस्तु उपयुक्त हो।।2।।

रघुनाथजी ने उसे हाथ की मुद्रिका दी और कहा जाकर कुशल कहना और माता जानकी को मुँदरी देना। हनुमान की पीठ ठोंककर राम समझाते हैं कि बाद में राम की सेना आएगी। तुम लंका को लंकी कर देना।।3।।

हनुमान जी का तेज़ इतना बढ़ा कि उसकी आँच में कोई नहीं ठहर सकता था। बढ़े हुए समुद्र को वे एक ही कुलाँच में कूद गए। ऐसा देखकर नागमाता सुरसा ने मुँह फैलाया और कहा कि आज हमारे लिए कुछ भोजन रहा है। तब हनुमानजी ने छोटा-सा रूप धारण कर लिया।।4।।

वह एक फंका मारकर उन्हें एक ही साँस में समेट ले गई, किंतु उसके उदर में खलभली मची और वे उसका शरीर फाड़कर निकल आए। तुलसीदास जी उनकी यह कीर्ति गाते हैं। जब हनुमानजी ने लंका पर चढ़ाई की तो लंका से लंकी बना दिया।।5।।

स्रोत :
  • पुस्तक : हिंदी के लोकगीत (पृष्ठ 209)
  • संपादक : महेशप्रताप नारायण अवस्थी
  • प्रकाशन : सत्यवती प्रज्ञालोक
  • संस्करण : 2002

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