अवधी लोकगीत : आवत देखेउँ दुइ रे सिपहिया रे ना
awadhi lokgit ha aawat dekheun dui re sipahiya re na
रोचक तथ्य
संदर्भ—बहू की दुर्दशा।
आवत देखेउँ दुइ रे सिपहिया रे ना,
रामा, एक रे गोर एक साँवर रे ना।
गोरे तौ मोरी मइया के पुतवा रे ना,
रामा, सँवरे ननद जी के भइया रे ना।।1।।
देउ न मोरी सासु झिनवा के चउरा रे ना,
सासू! अपने बिरन का जेवावउँ रे ना।
मोरे घरे बउहरि अँखरी कोदईया रे ना,
बाउहरि! अपने बिरन का जेंवावउ रे ना।।2।।
अगिया न लागइ सासू अँखरी कोदईया रे ना,
सासू! जरि जाती कोदई के कूड़ा रे ना।
हमतौ बनउबै सासू झिनवा के चउरा रे ना,
सासू! अउर मूँग कै दलिया रे ना।।3।।
जेवन बइठे हैं सारउ बहनोइया रे ना,
अब सरवउ के ढुरै लागे अँसुना रे ना।
की तुम सुमिरउ बीरन बासी कलेउना रे ना,
बीरन! की रे भउज जी कै सेजिया रे ना।।4।।
नाहीं मैं सुमिरउँ बहिनी बसिया कलेउना रे ना,
बहिनी! नाहीं तोरी भउजी कै सेजिया रे ना।
चाँद सुरिज अइसी बहिनी बियाहेउँ रे ना,
बहिनी! मरि के भइल है बिलरिया रे ना।।5।।
हाथा देखउ भइया कि हाथा देखउ भइया रे ना,
भइया! जइसे बरदिया कै कँधिया रे ना।
पीठि देखउ भइया कि पिठि देखउ भइया रे ना,
भइया! जइसे बिलरिया कै पिठिया रे ना।।6।।
मँड देखउ भइया कि मूँड़ देखउ भइया रे ना,
जइसे कुकुरिया कै पुँछिया रे ना।
पछिली भउरिया बीरन हमरा भोजनवा रे ना,
भइया! ओहू माँ से देवरा कलेउना रे ना।।7।।
सासु लुगरिया बीरन हमरा ओढ़नवा रे ना,
बीरन! ओहू माँ से ननदी ओढ़निया रे ना,
यह दुख जिन कहेउ बपई के अगवा रे ना,
भइया! सभवा बइठि पछितइहैं रे ना।।8।।
यह दुख जिन कहेउ मइया के अगवा रे ना,
भइया! छतिया पीटि भरि जइहैं रे ना।
यह दुख जिन कहेउ काकी के अगवा रे ना,
भइया! मइया का मोरी बोली बोलिहैं रे ना।।9।।
यह दुख जिन कहेउ भउजी के अगवा रे ना,
भइया! राम रसोइया हँसि डरिहै रे ना।
यह दुख जिन कहेउ बहिनी के अगवा रे ना,
भइया! यह सुनि के ससुरे न जइहैं रे ना।
यह दुख मोरे भइया मन ही माँ राखेउ रे ना,
भइया! नदिया माँ दिहेउ सेरवाई रे ना।।10।।
एक स्त्री कहती है—मैंने दो सिपाही आते देखे, उसमें एक गोरा दूसरा साँवला था। गोरे रंग वाला तो मेरा भाई है और साँवला मेरी ननद जी का भाई।।1।।
हे सासूजी! झिनवा के चावल दीजिए, मैं अपने भाई को जिमाऊँ। सास ने कहा मेरे घर में तो अखरी कोदई है, वही अपने भाई को खिलाओ।।2।।
बहू ने कहा—हे सास! आपकी अखरी कोदई में आग लगे, कोदई के कुरा जल जाते। मैं तो झिनवा के चावल और मूँग की दाल बनाऊँगी।।3।।
सास और बहनोई भोजन करने बैठे तो साले की आँखों से आँसू ढलने लगे। तब बहिन ने उससे पूछा—हे भैया! क्या आप बासी कलेवा का स्मरण करते हैं या भाभी जी की सेज को?।।4।।
भाई ने उत्तर दिया—हे बहिन! न तो मैं बासी कलेवा की याद करता हूँ और न ही तुम्हारी भाभी की सेज। बहिन, मैं सोचता हूँ कि मैंने चाँद-सूरज जैसी अपनी बहिन का विवाह किया था, वह कमज़ोर होकर बिल्ली जैसी दुबली और काली-कलूटी हो गई है।।5।।
बहिन ने कहा—हे भैया! मेरे हाथ देखिए, जैसे बैल के कंधे हों, जिनमें घट्ठे पड़ गए हैं। आप पीठ देखिए, जैसे बिल्ली की पीठ।।6।।
हे भैया—आप मेरा सिर देखिए, जैसे कुतिया की पूँछ। पिछली रोटी मेरा भोजन है, उसमें भी देवर के लिए कलेवा रहता है।।7।।
हे भैया! सास की गंदी धोती मेरा ओढ़ना है, उसमें भी ननद की ओढ़नी रहती है। इस दुःख को पिता के आगे मत कहिएगा, नहीं तो वे सभा में बैठकर पछताएँगे।।8।।
हे भैया। मेरा यह दुःख माँ के आगे न कहना, वे छाती पीटकर मर जाएँगी। यह दुःख काकी के आगे मत कहना, नहीं तो वे माँ को बोली मारेंगी।।9।।
हे भैया! यह दुःख भाभी के सामने मत कहना, अन्यथा वे रसोईघर में हँसेंगी (उपहास करेंगी)। यह दुःख बहिन के आगे भी मत कहिएगा, वे यह सुन ससुराल नहीं जाएँगी। यह दुःख अपने मन में ही रखिएगा एवं नदी में सेरवा दीजिएगा।।10।।
- पुस्तक : हिंदी के लोकगीत (पृष्ठ 184)
- संपादक : महेशप्रताप नारायण अवस्थी
- प्रकाशन : सत्यवती प्रज्ञालोक
- संस्करण : 2002
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