बखरी रइयत है भारे की
bakhrii ra.iyat hai bhaare kii
बखरी रइयत है भारे की!
दई पिया प्यारे की।
कच्ची भींत उठी साटी की, छाह फूस चारे की॥
बे बंदेज डरी बेवाड़ा, ओह में दस द्वारे की॥
नई किबार किबरियाँ एकउ, बिना कुची तारे की॥
‘ईसुर’ चाय निकारौ जिदना, हमें कौन उआरे की॥
हम प्रियतम के दिए हुए मकान में रहते हैं। इसमें मिट्टी (हाड़, माँस) की कच्ची दीवारें खड़ी हैं और घासफूस (बालों) का छप्पर चढ़ा है। इसमें न ठीक व्यवस्था है न कोई परकोटा। ऊपर से (इंद्रियों के) दस दरवाज़े खुले पड़े हैं। उनमें न किवाड़ हैं न ताले-चाबियाँ। ईसुरी को जब चाहो तब इस मकान से हटा दो। हमें इसमें रहने में क्या फ़ायदा?
- पुस्तक : ईसुरी की फागें (पृष्ठ 76)
- संपादक : घनश्याम कश्यप
- प्रकाशन : शब्दपीठ
- संस्करण : 1995
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