अपने मन मानिक के लानें
apne man manik ke lanen
अपने मन मानिक के लानें!
सुघर चौहरी चानें!
नर तन रतन जतन सें राखौ, चड़ौ प्रेमरस सानें॥
बेंची ओई दुकाने जैहे, जो गुन खौं पैचानें॥
‘ईसुर’ सब जाँगा फिर हारे, कोए धरत ना गानें॥
अपने मन के रत्न की परख के लिए चतुर होना चाहिए। मैंने इस मानव देह के रत्न को बड़े यत्न से सँभाल कर रखा। इसे प्रेमरस की सान पर चढ़ाया है—तराशा है। यह उसी दूकान पर बेचा जाएगा जो गुन को पहचानता हो। ईसुरी सब जगह घूमा-फिरा, इसे कोई गिरवी नहीं रखता।
- पुस्तक : ईसुरी की फागें (पृष्ठ 294)
- संपादक : घनश्याम कश्यप
- प्रकाशन : शब्दपीठ
- संस्करण : 1995
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