कीसें कएँ प्रीत की रीती
kiise.n ka.e.n priit kii riitii
कीसें कएँ प्रीत की रीती!
कएँ सें होत अनीती!
मरम न जानत एन बातन कौ, को मानत परतीती॥
सई ना जात मिलन की हारी, विछुरन जात न जीती॥
साजी बुरई लई सिर ऊपर, भई सो भाग बदीती॥
पर बीती नइ कात ‘ईसुरी’ कत जौ हमपै बीती॥
प्रेम की रीति हम किसे समझाएँ? उसे बताने से अनीति होती है। लोग उसका मर्म नहीं समझते। उस पर किसे विश्वास है? मिलन की हार और बिछुड़न की जीत कौन सह सकता है? अच्छी-बुरी जो कुछ हुई, मैंने अपने सिर पर ले ली। जो भाग्य में लिखा था, वह हुआ। ईसुरी परबीती बात नहीं कहता, आप बीती बताता है।
- पुस्तक : ईसुरी की फागें (पृष्ठ 244)
- संपादक : घनश्याम कश्यप
- प्रकाशन : शब्दपीठ
- संस्करण : 1995
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