कानन डुलें राधका जी के
kanan Dulen radhka ji ke
कानन डुलें राधका जी के!
लगें तरकुला नीके!
आनदं कंद चंद के ऊपर, दो तारागन झींके॥
परतन पसर परत गलन पै, तरें झूमका जी के॥
जिनके घर सें जे पैराए, और जनन ने सीके॥
‘ईसुर’ स्याम सनेह सौं देखत, ब्रजवासी बसती के॥
राधिका जी के कानों में झूलती झुमकियाँ बड़ी सुंदर लगती है। आनंदकारी चंद्रमा के पास झिलमिलाते दो नक्षत्र भी उनकी शोभा से हतप्रभ है। पोंढ़ते समय नीचे के लटकन उनके कपोलों पर परस कर पड़े रहते हैं। ऐसे आभूषणों का चलन उनके घर से शुरू हुआ, जिन्हें औरों ने सीखा। अरे ईसुरी! उनकी झुमकियों को कृष्ण और ब्रजवासी जन बड़े चाव से देखते हैं।
- पुस्तक : ईसुरी की फागें (पृष्ठ 38)
- संपादक : घनश्याम कश्यप
- प्रकाशन : शब्दपीठ
- संस्करण : 1995
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