महाभारत के अंत में जब श्रीकृष्ण अंतर्धान हुऐ तब पांडव तो महादुःखी हो, हस्तिनापुर का राज्य परीक्षित को दे हिमालय गलने गए, और राजा परीक्षित सब देश जीत धर्मराज करने लगा, कितने एक दिन पीछे राजा परीक्षित आखेट को गए तो वहाँ देखा कि एक गाय और बैल दौड़े चले आते हैं, तिनके पीछे मूसल हाथ में लिए एक शूद्र मारता आता है, जब वे पास पहुँचे तब राजा ने शूद्र को बुलाय दुःख पाय झुँझलाय कर कहा अरे तू कौन है? अपना बखान कर जो मारता है गाय और बैल को जान कर, क्या तैने अर्जुन को दूर गया जाना जिससे उसका धर्म नहीं पहिचाना। सुन, पांडु के कुल में ऐसा किसी को न पावेगा कि जिसके सोहीं कोई दीन को सतावेगा। इतना कह राजा ने खड्ग हाथ में लिया। वह देख कर खड़ा हुआ, फिर नरपति ने गाय और बैल को भी निकट बुलाय कर पूछा तुम कौन हो बुझा कर कहो देवता हो कि ब्राह्मण और किसलिए भागे जाते हो सो निधड़क कहो मेरे रहते किसी की इतनी सामर्थ्य नहीं जो तुम्हें दुःख दे। इतनी बात सुनी तब तो बैल शिर झुका कर बोला— महाराज ये पापरूप काले वर्ण डरावनी सूरत जो आपके सन्मुख खड़ा है सो कलियुग है, इसी के आने से मैं भागा जाता हूँ। यह गाय रूप पृथ्वी है सो भी इसी के डर से भाग चली और मेरा नाम धर्म है चार पाँव रखता हूँ —तप, सत्य, दया और शौच। सतयुग में मेरे चरण बीस बिस्वे थे, त्रेता में सोलह, द्वापर में बारह, अब कलियुग में चार बिस्वे रहा, इससे कलि के बीच चल नहीं सकता। धरती बोली—धर्मावतार! मुझसे इस युग में रहा नहीं जाता; क्योंकि शूद्र राजा हो अधिक अधर्म मेरे ऊपर करेंगे तिनका बोझ मैं न सह सकूँगी। इस भय से मैं भी भागती हूँ। यह सुनते ही राजा ने क्रोध कर कलियुग से कहा—मैं तुझे अभी मारता हूँ, वह थरथरा राजा के चरणों पर गिर गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि पृथ्वीनाथ! अब तो मैं तुम्हारी शरण आया मुझे कहीं रहने को ठौर बताइए, क्योंकि तीन काल और चारों युग ब्रह्मा ने बनाये हैं सो किसी भाँति मेटे नहीं मिटेंगे। इतना वचन सुनते ही राजा परीक्षित ने कलियुग से कहा कि तुम इतनी ठौर रहो—जुए, झूठ, मद की हाट, वेश्या के घर, हत्या, चोरी और सुवर्ण में। यह सुन कलि ने तो अपने स्थान को प्रस्थान किया और राजा ने धर्म को मन में रख लिया, पृथ्वी अपने स्वरूप में मिल गई राजा फिर नगर में आए और धर्मराज करने लगे। कितने एक दिन बीते राजा फिर एक समय आखेट को गए और खेलते-खेलते प्यासे भये, शिर के मुकुट में तो कलियुग रहता ही था उसने अपना अवसर पा राजा को अज्ञान किया, राजा प्यास के मारे कहाँ आते हैं कि जहाँ लोमश ऋषि आसन मारे नयन मूँदे हरि का ध्यान लगाये तप कर रहे थे, उन्हें देख राजा परीक्षित मन में कहने लगे कि इन्होंने अपने तप के घमंड से मुझे देख आँखें मूँद ली हैं, ऐसी कुमति ठान एक मरा साँप वहाँ पड़ा था सो धनुष से उठा ऋषि के गले में डाल अपने घर आया। मुकुट उतारते ही राजा का ज्ञान हुआ तो सोचकर कहने लगा कि कंचन में कलियुग का वास है यह मेरे शीश पर था इसी से मेरी ऐसी कुमति हुई जो मरा सर्प ले ऋषि के गले में डाल दिया सो मैं अब समझा कि कलि ने मुझसे पलटा लिया, इस महापाप से कैसे छूटूँगा! वरन धन, जन, स्त्री और राज मेरा क्यों न गया सब आज, न जाने किस जन्म में यह अधर्म जाएगा जो मैंने ब्राह्मण को सताया है। राजा परीक्षित तो यहाँ इस अथाह शोक-सागर में डूब रहे थे और जहाँ लोमश ऋषि थे तहाँ कितने एक लड़के खेलते हुए जा निकले, मरा साँप उनके गले में देख अचंभे में रहे और घबरा कर आपस में कहने लगे कि भाई कोई इनके पुत्र से जाकर कह दे, जो उपवन में कौशिकी नदी के तीर ऋषियों के बालकों में खेलता है, एक सुनते ही दौड़ा वहीं गया जहाँ शृंगी ऋषि छोकरों के साथ खेलता था। कहा बंधु तुम यहाँ क्या खेलते हो, कोई दुष्ट मरा साँप तुम्हारे पिता के कंठ में डाल गया है। सुनते ही शृंगी ऋषि के नेत्र लाल हो आए, दाँत पीस-पीस लगा थरथर काँपने और क्रोध कर कहने कि कलियुग में राजा उपजे हैं अभिमानी, धन के मद से अंधे हो गए हैं दुखदानी, अब मैं उनको देहूँ शाप, वही मीच पावैगा आप। ऐसे कह शृंगी ऋषि ने कौशिकी नदी का जल चुल्लू में ले राजा परीक्षित को शाप दिया कि यही सर्प सातवें दिन तुझको डसेगा। इस भाँति राजा को शाप दे अपने बाप के पास आ गले से साँप निकाल कहने लगा कि हे पिता! तुम अपनी देह सँभालो, मैंने उसे शाप दिया है जिसने आपके गले में मरा सर्प डाला था। यह बात सुनते ही लोमश ऋषि ने चैतन्य हो नयन उघाड़ अपने ज्ञान, ध्यान से विचार के कहा—अरे पुत्र! तूने यह क्या किया? क्यों शाप राजा को दिया? उसके राज्य में हम सुखी थे और कोई पशु पक्षी भी दुःखी न था ऐसा धर्मराज था कि सिंह गाय एक साथ रहते और आपस में कुछ न कहते, हे पुत्र! जिनके देश में हम बसे थे क्या हुआ तिनके हाथ से मरा हुआ साँप डाला गया, उसे शाप क्यों दिया तनक दोष पर ऐसा शाप तैने दिया, बड़ा ही पाप किया, कुछ विचार मन में न किया। गुण छोड़ औगुण लिया, साधु को ऐसे चाहिए शील स्वभाव से रहे, आप कुछ न कहे और की सुन ले सब का गुण ले अवगुण तजे। इतना कह लोमश ऋषि ने एक चेले को बुला कर कहा तुम राजा परीक्षित को जाके चिता दो जो तुम्हें शृंगी ऋषि ने शाप दिया है भले लोग तो दोष देहींगे पर वह सुन सावधान तो हो जाए। इतना बचन गुरु का मान चेला चला वहाँ आया जहाँ राजा बैठा सोच करता था, आते ही कहा—महाराज! तुम्हें शृंगी ऋषि ने वह शाप दिया है कि सातवें दिन तक्षक डसेगा, अब तुम अपना कार्य करो जिससे कर्म की फाँसी से छूटो। राजा सुनते ही प्रसन्न हो हाथ जोड़ कहने लगा कि मुझ पर ऋषि ने बड़ी कृपा की जो शाप दिया—क्योंकि मैं माया-मोह के अपार शोक-सागर में पड़ा था सो निकाल बाहर किया। जब मुनि का शिष्य विदा हुआ तब राजा ने आप बैराग लिया और जनमेजय को बुलाय राजपाट देकर कहा—बेटा! गो-ब्राह्मण की रक्षा कीजो और प्रजा को सुख दीजो। इतना कह आए रनिवास, देखी नारी सभी उदास, राजा को देखते ही रानियाँ पावों पर गिर रो-रो कहने लगीं—महाराज! तुम्हारा वियोग हम अबला न सह सकेंगी इससे तुम्हारे साथ जी दें तो भला, राजा बोला—सुनो! स्त्री को उचित है कि जिसमें अपने पति का धर्म रहे सो करे, उत्तम कार्य में बाधा न डाले। इतना कह धन-जन-कुटुंब और राज्य की माया तज निर्मोही हो अपना योग साधने को गंगा के तीर जा बैठा इसका जिसने सुना वह हाय-हाय कर पछताय-पछताय बिन रोये न रहा और जब ये समाचार मुनियों ने सुना कि राजा परीक्षित शृंगी ऋषि के शाप से मरने को गंगा के तीर आ बैठा है तब व्यास, वशिष्ठ, भरद्वाज, कात्यायन, पाराशर, नारद, विश्वामित्र, वामदेव, जमदग्नि, आदि अट्ठासी सहस्र ऋषि आए, और आसन बिछाय-बिछाय पाँत-पाँत बैठ गए और अपने-अपने शास्त्र विचार-विचार अनेक भाँति के धर्म सुनाने लगे कि इतने में राजा की श्रद्धा देख पोथी काँख में लिए दिगंबर भेष श्रीशुकदेव जी भी आ पहुँचे उनको देखते ही जितने मुनि थे सबके सब उठ खड़े हुए, और राजा परीक्षित भी हाथ बाँध खड़ा हो विनती कर कहने लगा—हे कृपानिधान मुझ पर बड़ी दया की जो इस समय मेरी सुध ली। इतनी बात कही तब शुकदेव मुनि भी बैठे तो राजा ऋषियों से कहने लगे कि महाराज शुकदेव व्यास जी के तो बेटे और पाराशर जी के पोते तिनको देख तुम बड़े-बड़े मुनीश होके उठे सो तो उचित नहीं इसका कारण कहो जो मेरे मन का संदेह जाए, तब पाराशर मुनि बोले--हे राजा! जितने हम बड़े-बड़े ऋषि हैं पर ज्ञान में शुकदेव जी से छोटे हैं, इसलिए सब ने शुक का आदर मान किया, किसी ने इस आश पर कि ये तारण तरण हैं क्योंकि जब से जन्म लिया है तब ही से उदासी हो वनबास करते हैं और राजा तेरा भी बड़ा पुण्य उदय हुआ जो शुकदेवजी आए, ये सब धर्मों से उत्तम धर्म कहेंगे तिससे तू जन्ममरण से छूट भवसागर पार होगा; यह बचन सुन राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी को दंडवत कर पूछा कि महाराज! मुझे धर्म समझाय के कहो कि किस रीति से कर्म के फँदे से छूटूँगा, सात दिन में क्या करूँगा। अधर्म है अपार, कैसे भवसागर हूँगा पार। श्रीशुकदेवजी बोले—राजा तू थोड़े दिन मत समझ, मुक्ति तो होती है एक ही घड़ी के ध्यान में, जैसे षट्वांग राजा को नारद मुनि ने ज्ञान बताया था और उसने दो ही घड़ी में मुक्ति पाई थी तुझे तो सात दिन बहुत हैं। जो एक चित्त होके ध्यान से सब समझो अपने ही ज्ञान से, कि क्या है देह किसका है वास कौन करता है इसमें प्रकाश; यह सुन राजा ने हर्ष कर पूछा, हे महाराज! सब धर्मों से उत्तम धर्म कौनसा है सो कृपाकर कहो। तब शुकदेवजी बोले--हे राजा। जैसे सब धर्मों में वैष्णव धर्म बड़ा है तैसे पुराणो में श्रीमद्भागवत, जहाँ हरि भक्त यह कथा सुनावे है, तहाँ ही सर्व तीर्थ और धर्म आवे हैं, जितने हैं पुराण पर नहीं हैं भागवत के समान, इस कारण मैं तुझे बारह स्कंध महापुराण सुनाता हूँ जो व्यास मुनि ने मुझे पढ़ाया है, तू श्रद्धा समेत आनंद से चित्त दे सुन। तब तो राजा परीक्षित प्रेम से सुनने और शुकदेवजी मन से सुनाने लगे। नवमस्कंध की कथा जब मुनि ने सुनाई तब राजा ने कहा—हे दीनदयाल अब दयाकर कृष्णावतार की कथा कहिये, क्योंकि हमारे सहायक और कुल पूज्य वही हैं। शुकदेवजी बोले—हे राजा! तुमने मुझे बड़ा सुख दिया जो यह प्रसंग पूछा, सुनो मैं प्रसन्न हो कहता हूँ। यदुकुल में पहिले भजमान नाम राजा थे तिनके पुत्र पृथु अरु पृथु के बिदूरथ, तिनके शूरसेन जिन्होंने नवखंड पृथ्वी जीत के यश पाया उनकी स्त्री का नाम मरिष्या, जिसके दश लड़के और पाँच लड़कियाँ तिन में बड़े पुत्र बसुदेव जिनकी स्त्री के आठवें गर्भ में श्रीकृष्णचंद्रजी ने जन्म लिया जब बसुदेवजी उपजे थे तब देवताओं ने सुरपुर में आनंद के बाजने बजाए और शूरसेन की पाँचों पुत्रियों में से सबसे बड़ी कुंती थी जो पांडु को ब्याही थी, जिसकी कथा महाभारत में गाई है। और बसुदेवजी पहिले तो रोहण नरेश की बेटी रोहिणी को ब्याह लाए। पीछे सत्रह अठारह पटरानी हुई, तब मथुरा में कंस की बहन देवकी को ब्याहा। तहाँ आकाशवाणी हुई कि इस लड़की के आठवें गर्भ में कंस का काल उपजेगा। यह सुन कंस ने बहन-बहनोई को एक घर में क़ैद किया और श्रीकृष्ण ने वहाँ ही जन्म लिया इतनी कथा सुनते ही राजा परीक्षित बोले महाराज कैसे जन्म कंस ने लिया?
- पुस्तक : कोविद गद्य (पृष्ठ 1)
- संपादक : श्री नारायण चतुर्वेदी
- रचनाकार : लल्लू लाल जी
- प्रकाशन : रामनारायण लाल पब्लिशर और बुक
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