यह तो स्पष्ट है कि समाज की गति के साथ साहित्य भी गतिशील होता है। जो सच्चा साहित्यकार होता है, उसकी वाणी में युग की वाणी रहती है। ऐसे साहित्यकारों की रचनाओं में समस्त देश की आत्मा प्रस्फुट हो जाती है। उनके स्वर में देश की उच्चतम आकांक्षा की ध्वनि निकलती है। उनकी कृति में देश का आह्वान रहता है। ऐसे साहित्यकारों की अनुभूति में इतनी व्यापकता रहती है कि वे समस्त देश को अपना सकते हैं। उनकी अनुभूति किसी एक वर्ग में ही बद्ध नहीं रहती। अनुभूति के साथ उनमें रचना-शक्ति की भी एक ऐसी कुशलता होती है, जिससे वे अनायास ही पाठकों की सहानुभूति भी प्राप्त कर लेते हैं। ऐसी शक्ति और अनुभूति के अभाव से भावों में जो एक स्थूलता आ जाती है, उसके कारण कला में भी कृत्रिमता आ जाती है। भावों की स्थूलता को छिपाने के लिए जब शब्दों का कृत्रिम जाल निर्मित होता है, तब शैली की विलक्षणता में ही कला का चमत्कार देखा जाता है। अनुभूति का स्थान आवेश ले लेता है। उस आवेश में दंभ रहता है, अभिमान रहता है। और उसी के कारण एक कृत्रिम स्फूर्ति भी उत्पन्न हो जाती है। उसमें जीवन की यथार्थता की परीक्षा नहीं होती। परंतु अपनी अहंवृत्ति के कारण अपनी ही दृष्टि से हम जो कुछ देखते हैं, उसी को एकमात्र सत्य मानकर उसे दृढ़तापूर्वक पकड़ लेते हैं।
आधुनिक युग के प्रांरभ में पाश्चात्य सभ्यता के संघर्ष से भारतीय सभ्यता पर आघात अवश्य पहुँचा। आदर्शों के संघर्ष से सत्य की परीक्षा के लिए सभी साहित्यकारों में एक आग्रह हुआ। उसी के कारण भारतीय समाज के भीतर सुधार की भी भावना उत्पन्न हुई। भारतवर्ष के सामाजिक जीवन में जो दोष उत्पन्न हो गए थे, उनका निराकरण करने के लिए चेष्टा की गई। आधुनिक युग के प्रारंभिक काल में कितने ही सुधारक हुए। परंतु यह तो सभी जानते थे कि दो-चार या दस-पाँच सुधार कर देने से सामाजिक जीवन की जीर्णावस्था या निश्चेष्टता दूर नहीं हो सकती। ज्यों-ज्यों समाज, परिवार और व्यक्ति के जीवन की परीक्षा की गई, त्यों-त्यों नव समाज और नव सामाजिक आदर्श के निर्माण के लिए व्यग्रता होने लगी। नव समाज के निर्माण का यह प्रयास केवल भारतवर्ष में ही बद्ध नहीं था। सारे विश्व में यही चेष्टा प्रारंभ हुई। उसी के कारण समाज-नीति के साथ राजनीति और साहित्यनीति में भी आमूल परिवर्तन की भावना प्रकट होने लगी। कितने विज्ञों ने यह कहा कि “दुनिया को बदलो और जो सड़ चुका है, उसे छोड़ दो; नवीनताओं को अपनाओ, समाज की रूढ़ियों को तोड़ डालो, नए मनुष्य को जन्म दो।”
क्रांति की यह भावना कथा-साहित्य में विशेष रूप से स्पष्ट हुई। व्यक्ति के साथ परिवार का और परिवार के साथ समाज का जो संबंध है, उसका एक नैतिक आधार है। उसी नैतिक आधार के कारण समाज में पाप-पुण्य और सदाचार-दुराचार का निर्णय होता है। नीति के उस मूल आधार पर परंपरागत संस्कारों का भी प्रभाव पड़ता है। इसीलिए जब नीति की वैज्ञानिक परीक्षा आरंभ हुई, तब जो संस्कार जीवन में बद्धमूल हो चुके थे, उन पर भी कठोर आघात होने लगा। इसी से दांपत्य प्रेम और विवाह के आदर्शों ने साहित्य में एक समस्या का रूप धारण कर लिया और निर्बाध प्रेम अथवा उन्मुक्त प्रेम के चित्र कथा-साहित्य में विशेष रूप से अंकित होने लगे। प्रेम के लिए कोई मर्यादा अथवा सीमा बाह्य जगत् में नहीं रही। उसमें भी आर्थिक हीनता के कारण जो कष्ट स्त्रियों को भोगना पड़ता है, उसको प्रधानता देकर उन्मुक्त प्रेम के आदर्श का प्रचार होने लगा।
यह तो स्पष्ट है कि आर्थिक कष्ट की कोई सीमा निर्दिष्ट नहीं की जा सकती। जब लोगों में विलास की भावनाएँ प्रबल हो जाती हैं, तब किसी भी एक स्थिति में संतोष नहीं होता। जहाँ एक ओर निर्धनता है, दुर्भिक्ष है और अत्याचार तथा उत्पीड़न है और दूसरी ओर संपत्ति और ऐश्वर्य का विलास है, वहाँ असंतोष की भावना और भी प्रबल हो जाती है। यही कारण है कि कथा-साहित्य में प्रेम के ऐसे जो चित्र अंकित हुए, उनमें कर्तव्य की गरिमा, प्रेम की सहिष्णुता, उदारता और त्याग का वर्णन नहीं हुआ। उसमें वासना की अतृप्ति, असंतोष और विलास की प्रचंड भावना ही प्रधान है। विचारणीय यह है कि व्यक्ति के चरित्र में जो एक गौरव रहता है, उसका आधार कहाँ है। यह तो सभी स्वीकार करेंगे कि व्यक्तिगत जीवन में उच्छृंखलता आ जाने से समाज अथवा राष्ट्र का हित नहीं हो सकता। अतएव उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि नव समाज के निर्माण में भी जो नव आदर्श निर्मित हों, उनमें व्यक्तिगत उच्छृंखलता को स्थान न दिया जाए।
व्यक्तिवाद अथवा समाजवाद या राष्ट्रवाद में कोई विरोध की भावना नहीं रहती। एक स्थान में व्यक्ति सबसे पृथक् रहता है। वहाँ उसका अपना व्यक्तित्व ही सबसे अधिक स्पृहणीय होता है। उसी के विकास में उसके जीवन की सार्थकता है। परंतु दूसरी ओर वह एक होकर भी अनेकों से ऐसा संबंध स्थापित कर लेता है कि वह अपने व्यक्तिगत जीवन को किसी प्रकार उनसे पृथक नहीं कर सकता। वह मानो एक होकर भी अनेक हो जाता है। उसी संबंध के कारण वह क्षुद्र होकर भी महान् होता जाता है। उसके व्यक्तित्व का विकास उसके उसी संबंध के विकास पर निर्भर हो जाता है। वासना का संबंध एकमात्र उसके व्यक्तिगत जीवन से है; परंतु कर्तव्य का संबंध दूसरों से हो जाता है। वही कर्तव्य जब एक धर्म का रूप धारण कर लेता है, तब वह सभी व्यक्तियों को एक परिवार, समाज, राष्ट्र अथवा मानव-जाति के रूप में संगठित कर देता है। उस संगठन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता रहने पर भी व्यक्तिगत उच्छृंखलता नहीं रह सकती। उस समय स्वार्थ के साथ लोक-कल्याण की भावना काम करती है। उस लोक-कल्याण में ही चरित्र का सच्चा माहात्म्य प्रकट होता है। स्वार्थों में एक क्षुद्रता हो जाती है और लोक-भावना में एक गौरव आ जाता है।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि एकमात्र बाह्य शासन अथवा शक्ति की प्रेरणा से मनुष्य के हृदय में यह विशाल संवेदना अथवा सहानुभूति नहीं उत्पन्न नहीं हो सकती। उसके लिए अंत: प्रेरणा ही होनी चाहिए। मनुष्यों के हृदय में प्रेम की जो सहज भावना है, उसी के विकास से मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास करता है और उसी से वह लोक-कल्याण और विश्व-मैत्री या विश्व बंधुत्व की भावना को स्वायत्त कर लेता है। प्रेम की इस विशुद्ध भावना में त्याग की प्रवृत्ति बलवती हो जाती है। इसी से प्रेम के भाव से मनुष्य स्वेच्छा से कष्ट सहता है। तब कष्ट की यह यातना यातना नहीं रह जाती, वह तपस्या हो जाती है। वासनाओं का संयम अथवा दमन उसकी आनंद-वृत्ति को संकुचित नहीं करता, विस्तृत कर देता है। एकमात्र रूढ़िवाद कहकर चरित्र के इस गौरव का तिरस्कार नहीं किया जा सकता। आज घर-घर कष्ट होने पर भी जो सुख और शांति का एक वातावरण है, उसका कारण वही पारिवारिक स्नेह, ममता और प्रेम है, जिसके कारण सेवा और त्याग में जीवन की सच्ची सार्थकता देखी जाती है।
व्यक्तिगत जीवन की अपनी समस्याएँ होती हैं; परंतु समाज की भी पृथक् समस्याएँ होती हैं। समाज में व्यक्तियों का समूह रहने पर भी कुछ ऐसी नीति या व्यवस्था का प्रचलन हो जाता है, जिसके कारण किसी विशिष्ट वर्ग का प्रभुत्व बढ़ जाता है। उस समय उसी विशिष्ट वर्ग के संकुचित हित के लिए एक विशेष व्यवस्था की स्थापना भी हो जाती है। 'बहुजनहिताय' के लिए सभी युगों में चेष्टा की जाती है। पर उस बहुजन में एक विशिष्ट वर्ग का ही हित समाविष्ट हो जाता है। तभी समाज में किसी-न-किसी रूप में शोषण नीति का प्रचार हो जाता है। जो दारिद्र-व्रत व्यक्तिगत जीवन में स्वेच्छा से स्वीकृत होकर तपस्या का रूप धारण करता है, वह सामाजिक जीवन में अधिकांश जनों के लिए अभिशाप हो जाता है। उस दरिद्रता के मूल में ऐश्वर्य और प्रभुत्व का दंभ विद्यमान रहता है। उस दंभ में दया अथवा परोपकार की भावना भी मानव-जीवन की हीनावस्था को प्रकट करती है। जहाँ लोक की लोलुपता प्रभुत्व की स्वेच्छाचारिता से युक्त हो जाती है, वहीं मनुष्यों की पाशविक वासनाएँ भी उद्दीप्त हो जाती हैं और तभी अत्याचार और उत्पीड़न की भी वृद्धि होती है। व्यक्तिगत जीवन में भी उसका प्रभाव लक्षित होता है। यह नहीं कहा जा सकता कि सभी स्थितियों में समाज के प्रति विद्रोह की ही भावना मनुष्यों को समाज की व्यवस्था या नीति को भंग करने के लिए प्रेरित करती है। फिर भी सामाजिक परिस्थितियों की विवशता से मनुष्यों को अपने अंत: करण के विरुद्ध भी काम करने पड़ते हैं। पाश्चात्य साहित्य के सुप्रसिद्ध उपन्यास 'क्राइम एंड पनिशमेंट' में परिस्थिति की विवशता ही जघन्य कृत्यों के लिए प्रेरित करती है। परंतु 'अन्ना केरेनिना' के व्यक्तिगत जीवन में परिस्थिति की वही विवशता नहीं है। उसके हृदय में वासना की जो आँधी आई, उसी ने उसके जीवन को नष्ट कर दिया।
जीवन में क्या सत्य है और क्या असत्य, इसका निर्णय सहसा नहीं किया जा सकता। कार्य के रूप में बहिर्जगत में जो कुछ होता रहता है, वही एकमात्र सत्य नहीं होता। अंतर्जगत् में भी भावों के घात-प्रतिघात से जो विप्लव होता रहता है, उसकी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। स्त्रियाँ यदि पुरुषों के द्वारा कुपथगामिनी हो जाती हैं, तो उसमें एकमात्र पुरुषों का ही उत्तरदायित्व नहीं रहता। इसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि पुरुष अपनी वासना की तृप्ति के लिए स्त्रियों को कुपथ पर नहीं ले जाते। अधिकांश पुरुषों और स्त्रियों के जीवन में कर्तव्यों की भावनाओं से ही उन पाशविक वासनाओं का दमन हो जाता है, जिनके कारण व्यक्तिगत जीवन दुःखमय हो जाता है। शरत् बाबू के 'गृहदाह' में एकमात्र भावों के घात-प्रतिघात से ही वह परिस्थिति उत्पन्न हो गई है, जिसके कारण नायक और नायिका दोनों अपने जीवन के लक्ष्य से च्युत हो गए। उसी के कारण दोनों के जीवन में दुख की एक घटा आ गई और उनके प्रेममय गृह का दाह हो गया।
समाज और राष्ट्र के भीतर रहकर भी अपने व्यक्तित्व के कारण सभी मनुष्यों के चरित्र में वैचित्र्य रहता है और उसी के कारण उनके जीवन की गति में भी भिन्नता रहती है। उपन्यासों में समाज की पृष्ठभूमि पर व्यक्ति के जीवन की ही कथा रहती है। इसीलिए उनकी कथा में एक असाधारणता आ जाती है। विचारणीय यही है कि जिन परिस्थितियों में उपन्यास के नायक अथवा नायिका के जीवन का विकास प्रदर्शित हुआ है, उनमें भाव के साथ कर्म का सच्चा मेल हुआ है अथवा नहीं, तभी चरित्र की विशेषता लक्षित होती है।
जीवन में जो वासना है, वह वासना ही है। उसकी उग्रता और उद्दामता पर जीवन में क्या सत्य है और क्या असत्य, इसका निर्णय सहसा नहीं किया जा सकता। मनुष्य यदि अपने अंतस्तल की सच्ची परीक्षा करने बैठे , तो वहाँ वह वासनाओं की संचित पंकराशि देखेगा। उच्च या नीच, उत्कृष्ट या निकृष्ट, सभी श्रेणियों के मनुष्यों के भीतर वासना की एक ऐसी लोलुपता किसी-न-किसी रूप में बनी रहती है। परंतु उसी के साथ एक ऐसी भी प्रवृत्ति मनुष्य के मन में रहती है, जिसके कारण वह अपनी उन वासनाओं पर भी विजय प्राप्त कर लेता है।
समाज के प्रति विद्रोह की भावना से जब हिंदी कथा-साहित्य में पाशविक भावनाओं को ही एकमात्र उत्तेजना दी जाती है, तब ऐसा जान पड़ता है कि मानव-जीवन में सुप्रवृत्तियों के लिए कोई स्थान ही नहीं, मानो एकमात्र वासना ही स्वाभाविक है और उन वासनाओं की निर्बाध तृप्ति में ही चरित्र का गौरव और जीवन का माहात्म्य है।
एक आख्यायिकाकार द्वारा कल्पित शेखर के प्रति सुमित्रा का प्रेम किसी भी बाधा को स्वीकार नहीं करता था। इसीलिए एक रात जब सुमित्रा का स्वामी कहीं बाहर चला गया था और सुमित्रा अकेली रह गई थी, तब बड़ी रात बीते शेखर की नींद खुली। नारी की भूख उसमें जाग उठी थी। वह उठकर सुमित्रा के समीप आ गया और उस सोई हुई नारी को जगाकर उसने कहना चाहा कि सुमित्रा उठो, लाज का पर्दा फाड़ दो। कब तक नारी को अपने अंदर बंद रखोगी? समाज भले ही इसे अपराध माने, पर समाज ने कब किसे खुलकर खेलने की आज़ादी दी है?
खुलकर खेलने की आज़ादी में ही जीवन की सार्थकता समझकर एक दूसरे आख्यायिकाकार की नायिका लीला अपने सुख के उस सपने को रूप देने के लिए अपने पति को छोड़कर चली गई, क्योंकि वह बंदीगृह से मुक्त होना चाहती थी। शृंखलाओं को तोड़कर पिंजरे से भाग जाना चाहती थी। वासनाओं की तृप्ति को ही प्रधान मानकर एक अन्य आख्यायिकाकार की नायिका उर्मिला ने कहा—प्रत्येक बात का एक युग होता है। यौवन का भी एक मदभरा युग होता है, जिसमें विलास की स्वाभाविक भावनाएँ निहित रहती हैं। उसी में भावनाओं की तृप्ति मानव के लिए अवश्यांभावी है। यौवन का युग समाप्त हो जाने पर, विलास की स्वाभाविक भावनाएँ मुरझा जाने पर उनकी तृप्ति के साधन यदि उपलब्ध हुए, तो वे असामयिक हैं। इसीलिए हिंदी के अधिकांश आधुनिक कथाकारों में निर्बाध प्रेम का आदर्श काम कर रहा है। वे यही कहना चाहते हैं कि जब तक शरीर और बुद्धि को खुलकर खेलने के लिए कोई उद्देश्य और तदनुकूल क्षेत्र न मिले, तब तक व्यक्ति की प्रवृत्तियाँ पंगु हैं।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि आधुनिक कथासाहित्य का अधिकांश भाग आधुनिक समाज के यथार्थ जीवन से बिलकुल पृथक् है। उनमें जीवन की यथार्थता नहीं है। उनमें समाज और व्यक्ति की सच्ची समस्याएँ भी नहीं हैं। उनमें एकमात्र तारुण्य की उद्दाम वासनाओं के ग्लानि कर चित्र अंकित हुए हैं और उन्हीं में कला की कुशलता मानी गई है। संसार में दुख है, दरिद्रता है, कष्ट है, उत्पीड़न है और अत्याचार है। उनके कारण कितने ही लोगों का जीवन भार-रूप हो गया: है पर उन सब विषम परिस्थितियों के बीच भी मनुष्यों के अंत: करण में सद्भावों की भी विद्यमानता है। उन्हीं के कारण सभी परिस्थितियों का अतिक्रमण कर मनुष्य उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है। धन की हीनता से उसमें चरित्र की हीनता नहीं आ जाती। यदि परिस्थिति की विवशता से वह कोई ऐसा काम करता है, जिससे उसके आत्म-गौरव की हानि होती है, तो अंत:करण की विशुद्धि के कारण वह उस विवशता में भी एक गौरव का अनुभव करता ही है। तभी वह उस विवशता के प्रति विद्रोह करता है। विद्रोह की यह भावना उसे उच्च स्थिति को ले जाती है। वह सच्चे न्याय और सुनीति का पथ ग्रहण करता है। वह पाशविक भावनाओं को महत्ता नहीं देता। वह अपने भीतर एक ऐसी अंतर्शक्ति का अनुभव करता है, जिसके कारण वह सभी बाधाओं को अतिक्रमण करने के लिए उद्यत हो जाता है। क्रांति की यही सच्ची भावना है, जो सभी युगों में प्रकट होती है। उसी में सच्ची आत्मशक्ति है। आत्मशक्ति के ही कारण क्रांति सफ़ल होती है। मार्टिन लूथर हो या कबीर, समाज में प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध उनमें विद्रोह की भावना जाग उठती है। हिंदी के आधुनिक कथा-साहित्य में विद्रोह की भावना के नहीं, कामुकता के ग्लानिकर चित्र अंकित हुए हैं। अभी तो उन्हीं के प्रति विद्रोह की आवश्यकता है।
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ek akhyayikakar dvara kalpit shekhar ke prati sumitra ka prem kisi bhi badha ko svikar nahin karta tha. isiliye ek raat jab sumitra ka svami kahin bahar chala gaya tha aur sumitra akeli rah gai thi, tab baDi raat bite shekhar ki neend khuli. nari ki bhookh usmen jaag uthi thi. wo uthkar sumitra ke samip aa gaya aur us soi hui nari ko jagakar usne kahna chaha ki sumitra utho, laaj ka parda phaaD do. kab tak nari ko apne andar band rakhogi? samaj bhale hi ise apradh mane, par samaj ne kab kise khulkar khelne ki azadi di hai?
khulkar khelne ki azadi mein hi jivan ki sarthakta samajhkar ek dusre akhyayikakar ki nayika lila apne sukh ke us sapne ko roop dene ke liye apne pati ko chhoDkar chali gai, kyonki wo bandigrih se mukt hona chahti thi.
shrrinkhlaon ko toDkar pinjre se bhaag jana chahti thi. vasnaon ki tripti ko hi pardhan mankar ek any akhyayikakar ki nayika urmila ne kaha—pratyek baat ka ek yug hota hai. yauvan ka bhi ek madabhra yug hota hai, jismen vilas ki svabhavik bhavnayen nihit rahti hain. usi mein bhaunaun ki tripti manav ke liye avashyambhavi hai. yauvan ka yug samapt ho jane par, vilas ki svabhavik bhavnayen murjha jane par unki tripti ke sadhan yadi uplabdh hue, to ve asamayik hain. isiliye hindi ke adhikansh adhunik kathakaron mein nirbadh prem ka adarsh kaam kar raha hai. ve yahi kahna chahte hain ki jab tak sharir aur buddhi ko khulkar khelne ke liye koi uddeshy aur tadnukul kshaetr na mile, tab tak vekti ki prvrittiyan pangu hain.
ye kahne ki avashyakta nahin hai ki adhunik kathasahitya ka adhikansh bhaag adhunik samaj ke yatharth jivan se bilkul prithak hai. unmen jivan ki yatharthta nahin hai. unmen samaj aur vekti ki sachchi samasyayen bhi nahin hain. unmen ekmaatr taruny ki uddaam vasnaon ke glani kar chitr ankit hue hain aur unhin mein kala ki kushalta mani gai hai. sansar mein dukh hai, daridrata hai, kasht hai, utpiDan hai aur attyachar hai. unke karan kitne hi logon ka jivan bhaar roop ho gayah hai par un sab visham paristhitiyon ke beech bhi manushyon ke antah karn mein sadbhavon ki bhi vidymanta hai. unhin ke karan sabhi paristhitiyon ka atikramn kar manushya unnati ke path par agrasar hota hai. dhan ki hinta se usmen charitr ki hinta nahin aa jati. yadi paristhiti ki vivashta se wo koi aisa kaam karta hai, jisse uske aatm gaurav ki hani hoti hai, to antahakran ki vishuddhi ke karan wo us vivashta mein bhi ek gaurav ka anubhav karta hi hai. tabhi wo us vivashta ke prati vidroh karta hai. vidroh ki ye bhavna use uchch sthiti ko le jati hai. wo sachche nyaay aur suniti ka path grahn karta hai. wo pashavik bhaunaun ko mahatta nahin deta. wo apne bhitar ek aisi antarshakti ka anubhav karta hai, jiske karan wo sabhi badhaon ko atikramn karne ke liye udyat ho jata hai. kranti ki yahi sachchi bhavna hai, jo sabhi yugon mein prakat hoti hai. usi mein sachchi atmashakti hai. atmashakti ke hi karan kranti safal hoti hai. martin luthar ho ya kabir, samaj mein prachalit dushprvrittiyon ke viruddh unmen vidroh ki bhavna jaag uthti hai. hindi ke adhunik katha sahity mein vidroh ki bhavna ke nahin, kamukta ke glanikar chitr ankit hue hain. abhi to unhin ke prati vidroh ki avashyakta hai.
ye to aspasht hai ki samaj ki gati ke saath sahity bhi gatishil hota hai. jo sachcha sahityakar hota hai, uski vani mein yug ki vani rahti hai. aise sahitykaron ki rachnaon mein samast desh ki aatma parisphut ho jati hai. unke svar mein desh ki uchchatam akanksha ki dhvani nikalti hai. unki kriti mein desh ka ahvan rahta hai. aise sahitykaron ki anubhuti mein itni vyapakta rahti hai ki ve samast desh ko apna sakte hain. unki anubhuti kisi ek varg mein hi baddh nahin rahti. anubhuti ke saath unmen rachna shakti ki bhi ek aisi kushalta hoti hai, jisse ve anayas hi pathkon ki sahanubhuti bhi praapt kar lete hain. aisi shakti aur anubhuti ke abhav se bhavon mein jo ek sthulata aa jati hai, uske karan kala mein bhi kritrimta aa jati hai. bhavon ki sthulata ko chhipane ke liye jab shabdon ka kritrim jaal nirmit hota hai, tab shaili ki vilakshanata mein hi kala ka chamatkar dekha jata hai. anubhuti ka sthaan avesh le leta hai. us avesh mein dambh rahta hai, abhiman rahta hai. aur usi ke karan ek kritrim sphurti bhi utpann ho jati hai. usmen jivan ki yatharthta ki pariksha nahin hoti. parantu apni ahanvritti ke karan apni hi drishti se hum jo kuch dekhte hain, usi ko ekmaatr saty mankar use driDhtapurvak pakaD lete hain.
adhunik yug ke praambh mein pashchaty sabhyata ke sangharsh se bharatiy sabhyata par aghat avashy pahuncha. adarshon ke sangharsh se saty ki pariksha ke liye sabhi sahitykaron mein ek agrah hua. usi ke karan bharatiy samaj ke bhitar sudhar ki bhi bhavna utpann hui. bharatvarsh ke samajik jivan mein jo dosh utpann ho gaye the, unka nirakarn karne ke liye cheshta ki gai. adhunik yug ke prarambhik kaal mein kitne hi sudharak hue. parantu ye to sabhi jante the ki do chaar ya das paanch sudhar kar dene se samajik jivan ki jirnaavastha ya nishcheshtata door nahin ho sakti. jyon jyon samaj, parivar aur vekti ke jivan ki pariksha ki gai, tyon tyon nav samaj aur nav samajik adarsh ke nirman ke liye vyagrata hone lagi. nav samaj ke nirman ka ye prayas keval bharatvarsh mein hi baddh nahin tha. sare vishv mein yahi cheshta prarambh hui. usi ke karan samaj niti ke saath rajaniti aur sahityniti mein bhi amul parivartan ki bhavna prakat hone lagi. kitne vigyon ne ye kaha ki duniya ko badlo aur jo saD chuka hai, use chhoD do, navintaon ko apnao, samaj ki ruDhiyon ko toD Dalo, nae manushya ko janm do.
kranti ki ye bhavna katha sahity mein vishesh roop se aspasht hui. vekti ke saath parivar ka aur parivar ke saath samaj ka jo sambandh hai, uska ek naitik adhar hai. usi naitik adhar ke karan samaj mein paap punny aur sadachar durachar ka nirnay hota hai. niti ke us mool adhar par paranpragat sanskaron ka bhi prabhav paDta hai. isiliye jab niti ki vaij~naanik pariksha arambh hui, tab jo sanskar jivan mein baddhamul ho chuke the, un par bhi kathor ayat hone laga. isi se dampatya prem aur vivah ke adarshon ne sahity mein ek samasya ka roop dharan kar liya aur nirbadh prem athva unmukt prem ke chitr katha sahity mein vishesh roop se ankit hone lage. prem ke liye koi maryada athva sima baahy jagat mein nahin rahi. usmen bhi arthik hinta ke karan jo kasht istriyon ko bhogna paDta hai, usko pradhanta dekar unmukt prem ke adarsh ka parchar hone laga.
ye to aspasht hai ki arthik kasht ki koi sima nirdisht nahin ki ja sakti. jab logon mein vilas ki bhavnayen prabal ho jati hain, tab kisi bhi ek sthiti mein santosh nahin hota. jahan ek or nirdhanta hai, durbhiksh hai aur attyachar tatha utpiDan hai aur dusri or sampatti aur aishvary ka vilas hai, vahan asantosh ki bhavna aur bhi prabal ho jati hai. yahi karan hai ki katha sahity mein prem ke aise jo chitr ankit hue, unmen kartavya ki garima, prem ki sahishnauta, udarta aur tyaag ka varnan nahin hua. usmen vasana ki atrpti, asantosh aur vilas ki prchanD bhavna hi pardhan hai. vicharanaiy ye hai ki vekti ke charitr mein jo ek gaurav rahta hai, uska adhar kahan hai. ye to sabhi svikar karenge ki vyaktigat jivan mein uchchhrinkhalta aa jane se samaj athva rashtra ka hit nahin ho sakta. atev unnati ke liye ye avashyak hai ki nav samaj ke nirman mein bhi jo nav adarsh nirmit hon, unmen vyaktigat uchchhrinkhalta ko sthaan na diya jaye.
vyaktivad athva samajavad ya rashtravad mein koi virodh ki bhavna nahin rahti. ek sthaan mein vekti sabse prithak rahta hai. vahan uska apna vyaktitv hi sabse adhik sprihanaiy hota hai. usi ke vikas mein uske jivan ki sarthakta hai. parantu dusri or wo ek hokar bhi anekon se aisa sambandh sthapit kar leta hai ki wo apne vyaktigat jivan ko kisi prakar unse prithak nahin kar sakta. wo mano ek hokar bhi anek ho jata hai. usi sambandh ke karan wo kshaudr hokar bhi mahan hota jata hai. uske vyaktitv ka vikas uske usi sambandh ke vikas par nirbhar ho jata hai. vasana ka sambandh ekmaatr uske vyaktigat jivan se hai; parantu kartavya ka sambandh dusron se ho jata hai. vahi kartavya jab ek dharm ka roop dharan kar leta hai, tab wo sabhi vyaktiyon ko ek parivar, samaj, rashtra athva manav jati ke roop mein sangthit kar deta hai. us sangathan mein vyaktigat svatantrata rahne par bhi vyaktigat uchchhrinkhalta nahin rah sakti. us samay svaarth ke saath lok kalyan ki bhavna kaam karti hai. us lok kalyan mein hi charitr ka sachcha mahatmy prakat hota hai. svarthon mein ek kshaudrata ho jati hai aur lok bhavna mein ek gaurav aa jata hai.
ye kahne ki avashyakta nahin ki ekmaatr baahy shasan athva shakti ki prerna se manushya ke hirdai mein ye vishal sanvedana athva sahanubhuti nahin utpann nahin ho sakti. uske liye antah prerna hi honi chahiye. manushyon ke hirdai mein prem ki jo sahj bhavna hai, usi ke vikas se manushya apne vyaktitv ka vikas karta hai aur usi se wo lok kalyan aur vishv maitri ya vishv bandhutv ki bhavna ko svayatt kar leta hai. prem ki is vishuddh bhavna mein tyaag ki pravrtti balavti ho jati hai. isi se prem ke bhaav se manushya svechchha se kasht sahta hai. tab kasht ki ye yatana yatana nahin rah jati, wo tapasya ho jati hai. vasnaon ka sanyam athva daman uski anand vritti ko sankuchit nahin karta, vistrit kar deta hai. ekmaatr ruDhivad kahkar charitr ke is gaurav ka tiraskar nahin kiya ja sakta. aaj ghar ghar kasht hone par bhi jo sukh aur shanti ka ek vatavarn hai, uska karan vahi parivarik sneh, mamta aur prem hai, jiske karan seva aur tyaag mein jivan ki sachchi sarthakta dekhi jati hai.
vyaktigat jivan ki apni samasyayen hoti hain; parantu samaj ki bhi prithak samasyayen hoti hain. samaj mein vyaktiyon ka samuh rahne par bhi kuch aisi niti ya vyavastha ka prachalan ho jata hai, jiske karan kisi vishisht varg ka prabhutv baDh jata hai. us samay usi vishisht varg ke sankuchit hit ke liye ek vishesh vyavastha ki sthapana bhi ho jati hai. bahujanahitay ke liye sabhi yugon mein cheshta ki jati hai. par us bahujan mein ek vishisht varg ka hi hit samavisht ho jata hai. tabhi samaj mein kisi na kisi roop mein shoshan niti ka parchar ho jata hai. jo daridr vart vyaktigat jivan mein svechchha se svikrit hokar tapasya ka roop dharan karta hai, wo samajik jivan mein adhikansh janon ke liye abhishap ho jata hai. us daridrata ke mool mein aishvary aur prabhutv ka dambh vidyaman rahta hai. us dambh mein daya athva paropakar ki bhavna bhi manav jivan ki hinavastha ko prakat karti hai. jahan lok ki lolupta prabhutv ki svechchhacharita se yukt ho jati hai, vahin manushyon ki pashavik vasnayen bhi uddipt ho jati hain aur tabhi attyachar aur utpiDan ki bhi vriddhi hoti hai. vyaktigat jivan mein bhi uska prabhav lakshait hota hai. ye nahin kaha ja sakta ki sabhi sthitiyon mein samaj ke prati vidroh ki hi bhavna manushyon ko samaj ki vyavastha ya niti ko bhang karne ke liye prerit karti hai. phir bhi samajik paristhitiyon ki vivashta se manushyon ko apne antah karn ke viruddh bhi kaam karne paDte hain. pashchaty sahity ke suprasiddh upanyas crime enD panishment mein paristhiti ki vivashta hi jaghany krityon ke liye prerit karti hai. parantu anna kerenina ke vyaktigat jivan mein paristhiti ki vahi vivashta nahin hai. uske hirdai mein vasana ki jo andhi i, usi ne uske jivan ko nasht kar diya.
jivan mein kya saty hai aur kya asaty, iska nirnay sahsa nahin kiya ja sakta. kaary ke roop mein bahirjagat mein jo kuch hota rahta hai, vahi ekmaatr saty nahin hota. antarjgat mein bhi bhavon ke ghaat pratighat se jo viplav hota rahta hai, uski bhi upeksha nahin ki ja sakti. striyan yadi purushon ke dvara kupathgamini ho jati hain, to usmen ekmaatr purushon ka hi uttardayitv nahin rahta. isi prakar ye bhi nahin kaha ja sakta ki purush apni vasana ki tripti ke liye istriyon ko kupath par nahin le jate. adhikansh purushon aur istriyon ke jivan mein kartavyon ki bhaunaun se hi un pashavik vasnaon ka daman ho jata hai, jinke karan vyaktigat jivan duakhamay ho jata hai. sharat babu ke grihadah mein ekmaatr bhavon ke ghaat pratighat se hi wo paristhiti utpann ho gai hai, jiske karan nayak aur nayika donon apne jivan ke lakshya se chyut ho gaye. usi ke karan donon ke jivan mein dukh ki ek ghata aa gai aur unke premamay grih ka daah ho gaya.
samaj aur rashtra ke bhitar rahkar bhi apne vyaktitv ke karan sabhi manushyon ke charitr mein vaichitry rahta hai aur usi ke karan unke jivan ki gati mein bhi bhinnata rahti hai. upanyason mein samaj ki prishthabhumi par vekti ke jivan ki hi katha rahti hai. isiliye unki katha mein ek asadharanta aa jati hai. vicharanaiy yahi hai ki jin paristhitiyon mein upanyas ke nayak athva nayika ke jivan ka vikas pradarshit hua hai, unmen bhaav ke saath karm ka sachcha mel
hua hai athva nahin tabhi charitr ki visheshata lakshait hoti hai.
jivan mein jo vasana hai,vah vasana hi hai. uski ugrata aur uddamta par jivan mein kya saty hai aur kya asaty, iska nirnay sahsa nahin kiya ja sakta. manushya yadi apne antastal ki sachchi pariksha karne baithe , to vahan wo vasnaon ki sanchit pankrashi dekhega. uchch ya neech, utkrisht ya nikasht, sabhi shreniyon ke manushyon ke bhitar vasana ki ek aisi lolupta kisi na kisi roop mein bani rahti hai. parantu usi ke saath ek aisi bhi pravrtti manushya ke man mein rahti hai, jiske karan wo apni un vasnaon par bhi vijay praapt kar leta hai.
samaj ke prati vidroh ki bhavna se jab hindi katha sahity mein pashavik bhaunaun ko hi ekmaatr uttejna di jati hai, tab aisa jaan paDta hai ki manav jivan mein suprvrittiyon ke liye koi sthaan hi nahin, mano ekmaatr vasana hi svabhavik hai aur un vasnaon ki nirbadh tripti mein hi charitr ka gaurav aur jivan ka mahatmy hai.
ek akhyayikakar dvara kalpit shekhar ke prati sumitra ka prem kisi bhi badha ko svikar nahin karta tha. isiliye ek raat jab sumitra ka svami kahin bahar chala gaya tha aur sumitra akeli rah gai thi, tab baDi raat bite shekhar ki neend khuli. nari ki bhookh usmen jaag uthi thi. wo uthkar sumitra ke samip aa gaya aur us soi hui nari ko jagakar usne kahna chaha ki sumitra utho, laaj ka parda phaaD do. kab tak nari ko apne andar band rakhogi? samaj bhale hi ise apradh mane, par samaj ne kab kise khulkar khelne ki azadi di hai?
khulkar khelne ki azadi mein hi jivan ki sarthakta samajhkar ek dusre akhyayikakar ki nayika lila apne sukh ke us sapne ko roop dene ke liye apne pati ko chhoDkar chali gai, kyonki wo bandigrih se mukt hona chahti thi.
shrrinkhlaon ko toDkar pinjre se bhaag jana chahti thi. vasnaon ki tripti ko hi pardhan mankar ek any akhyayikakar ki nayika urmila ne kaha—pratyek baat ka ek yug hota hai. yauvan ka bhi ek madabhra yug hota hai, jismen vilas ki svabhavik bhavnayen nihit rahti hain. usi mein bhaunaun ki tripti manav ke liye avashyambhavi hai. yauvan ka yug samapt ho jane par, vilas ki svabhavik bhavnayen murjha jane par unki tripti ke sadhan yadi uplabdh hue, to ve asamayik hain. isiliye hindi ke adhikansh adhunik kathakaron mein nirbadh prem ka adarsh kaam kar raha hai. ve yahi kahna chahte hain ki jab tak sharir aur buddhi ko khulkar khelne ke liye koi uddeshy aur tadnukul kshaetr na mile, tab tak vekti ki prvrittiyan pangu hain.
ye kahne ki avashyakta nahin hai ki adhunik kathasahitya ka adhikansh bhaag adhunik samaj ke yatharth jivan se bilkul prithak hai. unmen jivan ki yatharthta nahin hai. unmen samaj aur vekti ki sachchi samasyayen bhi nahin hain. unmen ekmaatr taruny ki uddaam vasnaon ke glani kar chitr ankit hue hain aur unhin mein kala ki kushalta mani gai hai. sansar mein dukh hai, daridrata hai, kasht hai, utpiDan hai aur attyachar hai. unke karan kitne hi logon ka jivan bhaar roop ho gayah hai par un sab visham paristhitiyon ke beech bhi manushyon ke antah karn mein sadbhavon ki bhi vidymanta hai. unhin ke karan sabhi paristhitiyon ka atikramn kar manushya unnati ke path par agrasar hota hai. dhan ki hinta se usmen charitr ki hinta nahin aa jati. yadi paristhiti ki vivashta se wo koi aisa kaam karta hai, jisse uske aatm gaurav ki hani hoti hai, to antahakran ki vishuddhi ke karan wo us vivashta mein bhi ek gaurav ka anubhav karta hi hai. tabhi wo us vivashta ke prati vidroh karta hai. vidroh ki ye bhavna use uchch sthiti ko le jati hai. wo sachche nyaay aur suniti ka path grahn karta hai. wo pashavik bhaunaun ko mahatta nahin deta. wo apne bhitar ek aisi antarshakti ka anubhav karta hai, jiske karan wo sabhi badhaon ko atikramn karne ke liye udyat ho jata hai. kranti ki yahi sachchi bhavna hai, jo sabhi yugon mein prakat hoti hai. usi mein sachchi atmashakti hai. atmashakti ke hi karan kranti safal hoti hai. martin luthar ho ya kabir, samaj mein prachalit dushprvrittiyon ke viruddh unmen vidroh ki bhavna jaag uthti hai. hindi ke adhunik katha sahity mein vidroh ki bhavna ke nahin, kamukta ke glanikar chitr ankit hue hain. abhi to unhin ke prati vidroh ki avashyakta hai.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।