गेहूँ हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से हमारा मानस तृप्त होता है।
गेहूँ बड़ा या गुलाब? हम क्या चाहते हैं—पुष्ट शरीर या तृप्त मानस? या पुष्ट शरीर पर तृप्त मानस!
जब मानव पृथ्वी पर आया, भूख लेकर। क्षुधा, क्षुधा; पिपासा, पिपासा। क्या खाए, क्या पीए? माँ के स्तनों को निचोड़ा; वृक्षों को झकझोरा; कीट-पतंग, पशु-पक्षी—कुछ न छूट पाए उससे!
गेहूँ—उसकी भूख का क़ाफिला आज गेहूँ पर टूट पड़ा है! गेहूँ उपजाओ, गेहूँ उपजाओ, गेहूँ उपजाओ!
मैदान जोते जा रहे हैं, बाग़ उजाड़े जा रहे हैं—गेहूँ के लिए! बेचारा गुलाब—भरी जवानी में कहीं सिसकियाँ ले रहा है! शरीर की आवश्यकता ने मानसिक प्रवृत्तियों को कहीं कोने में डाल रखा है, दबा रखा है।
किंतु; चाहे कच्चा चरे, या पकाकर खाए—गेहूँ तक पशु और मानव में क्या अंतर? मानव को मानव बनाया गुलाब ने! मानव, मानव तब बना, जब उसने शरीर की आवश्यकताओं पर मानसिक वृत्तियों को तरजीह दी!
यही नहीं; जब उसके पेट में भूख खाँव-खाँव कर रही थी, तब भी उसकी आँखें गुलाब पर टँगी थी, टँकी थीं।
उसका प्रथम संगीत निकला, जब उसकी कामिनियाँ गेहूँ को ऊखल और चक्की में कूट-पीस रही थीं। पशुओं को मारकर, खाकर ही वह तृप्त नहीं हुआ। उसकी खाल का बनाया ढोल और उनकी सींग का बनायी तुरही। मछली मारने के लिए जब वह अपनी नाव में पतवार का पंख लगाकर जल पर उड़ा जा रहा था, तब उसके छप-छप में उसने ताल पाया, तराने छोड़े! बाँस से उसने लाठी ही नहीं बनाई, बंसी भी बजाई!
रात का काला घुप्प पर्दा दूर हुआ, तब वह उच्छ्वसित हुआ सिर्फ़ इसलिए नहीं कि अब पेट-पूजा की समिधा जुटाने में उसे सहूलियत मिलेगी; बल्कि वह आनंदविभोर हुआ ऊषा की लालिमा से, उगते सूरज की शनैः शनैः प्रस्फुटित होने वाली सुनहली किरणों से, पृथ्वी पर चमचम करते लक्ष-लक्ष ओस कणों से! आसमान में जब बादल उमड़े, तब उनमें अपनी कृषि का आरोप करके ही वह प्रसन्न नहीं हुआ; उनके सौंदर्य-बोध ने उसके मन-मोर को नाच उठने के लिए लाचार किया; इंद्रधनुष ने उसके हृदय को भी इंद्रधनुषी रंगों में रंग दिया!
मानव शरीर में पेट का स्थान नीचे है, हृदय का ऊपर और मस्तिष्क का सबसे ऊपर! पशुओं की तरह उसका पेट और मानस समानांतर रेखा में नहीं हैं! जिस दिन वह सीधे तनकर खड़ा हुआ, मानस ने उसके पेट पर विजय की घोषणा की।
गेहूँ की आवश्यकता उसे है। किंतु उसकी चेष्टा रही है गेहूँ पर विजय प्राप्त करने की! उपवास, व्रत, तपस्या आदि उसी चेष्टा के भिन्न-भिन्न रूप रहे है!
जब तक मानव के जीवन में गेहूँ और गुलाब का संतुलन रहा, वह सुखी रहा, सानंद रहा!
वह कमाता हुआ गाता था और गाता हुआ कमाता था। उसके श्रम के साथ संगीत बँधा हुआ था और संगीत के साथ श्रम।
उसका साँवला दिन में गाय चराता था, रात में रास रचाता था।
पृथ्वी पर चलता हुआ, वह आकाश को नहीं भूला था और जब आकाश पर उसकी नज़रें गड़ी थीं, उसे याद था कि उसके पैर मिट्टी पर हैं!
किंतु धीरे-धीरे यह संतुलन टूटा।
अब गेहूँ प्रतीक बन गया हड्डी तोड़ने वाले, थकाने वाले, उबाने वाले, नारकीय यंत्रणाएँ देने वाले श्रम का—वह श्रम, जो पेट की क्षुधा भी अच्छी तरह शांत न कर सके।
और, गुलाब बन गया प्रतीक विलासिता का—भ्रष्टाचार का, गंदगी और गलीज़ का! वह विलासिता जो—शरीर को नष्ट करती है और मानस को भी।
अब उसके साँवले ने हाथ में शंख और चक्र लिए। नतीजा - महाभारत और यदुवंशियों का सर्वनाश !
वह परंपरा चली आ रही है। आज चारों ओर महाभारत है, गृहयुद्ध है, सर्वनाश है, महानाश है!
गेहूँ सिर धुन रहा है खेतों में, गुलाब रो रहा है बगीचों में - दोनों अपने-अपने पालन-कर्ताओं के भाग्य पर, दुर्भाग्य पर !
चलो, पीछे मुड़ो। गेहूँ और गुलाब में हम एक बार फिर सम-तुलन स्थापित करें।
किंतु मानव क्या पीछे मुड़ा है? मुड़ सकता है?
यह महायात्री चलता रहा है, चलता रहेगा !
और क्या नवीन सम-तुलन चिरस्थायी हो सकेगा? क्या इतिहास फिर दुहराकर नहीं रहेगा?
नहीं, मानव को पीछे मोड़ने की चेष्टा न करो।
अब गुलाब और गेहूँ में फिर सम-तुलन लाने की चेष्टा में सिर खपाने की आवश्यकता नहीं।
अब गुलाब गेहूँ पर विजय प्राप्त करे! गेहूँ पर गुलाब की विजय-चिर विजय! अब नए मानव की यह नई आकांक्षा हो!
क्या यह संभव है?
बिलकुल सोलह आने संभव है !
विज्ञान ने बता दिया हैअब उसके साँवले ने हाथ में शंख और चक्र लिए। नतीजा - महाभारत और यदुवंशियों का सर्वनाश !
वह परंपरा चली आ रही है। आज चारों ओर महाभारत है, गृहयुद्ध है, सर्वनाश है, महानाश है!
गेहूँ सिर धुन रहा है खेतों में, गुलाब रो रहा है बगीचों में - दोनों अपने-अपने पालन-कर्ताओं के भाग्य पर, दुर्भाग्य पर !
चलो, पीछे मुड़ो। गेहूँ और गुलाब में हम एक बार फिर सम-तुलन स्थापित करें।
किंतु मानव क्या पीछे मुड़ा है? मुड़ सकता है?
यह महायात्री चलता रहा है, चलता रहेगा !
और क्या नवीन सम-तुलन चिरस्थायी हो सकेगा? क्या इतिहास फिर दुहराकर नहीं रहेगा?
नहीं, मानव को पीछे मोड़ने की चेष्टा न करो।
अब गुलाब और गेहूँ में फिर सम-तुलन लाने की चेष्टा में सिर खपाने की आवश्यकता नहीं।
अब गुलाब गेहूँ पर विजय प्राप्त करे ! गेहूँ पर गुलाब की विजय - चिर विजय! अब नए मानव की यह नई आकांक्षा हो!
क्या यह संभव है?
बिलकुल सोलह आने संभव है !
विज्ञान ने बता दिया है–यह गेहूँ क्या है। और उसने यह भी जता दिया है कि मानव में यह चिर-बुभुक्षा क्यों है।
गेहूँ का गेहुँत्व क्या है, हम जान गए हैं। यह गेहुँत्व उसमें आता कहांँ से है, हमसे यह भी छिपा नहीं है।
पृथ्वी और आकाश के कुछ तत्व एक विशेष प्रतिक्रिया के पौदों की बालियों में संगृहीत होकर गेहूँ बन जाते हैं। उन्हीं तत्वों की कमी हमारे शरीर में भूख नाम पाती है !
क्यों पृथ्वी की कुड़ाई, जुताई, गुड़ाई! हम पृथ्वी और आकाश के नीचे इन तत्वों को क्यों न ग्रहण करें?
यह तो अनहोनी बात–युटोपिया, युटोपिया!
हाँ, यह अनहोनी बात, युटोपिया तब तक बनी रहेगी, जब तक मानव संहार-कांड के लिए ही आकाश-पाताल एक करता रहेगा। ज्यों ही उसने जीवन की समस्याओं पर ध्यान दिया, यह बात हस्तामलकवत् सिद्ध होकर रहेगी !
और, विज्ञान को इस ओर आना है; नहीं तो मानव का क्या, सर्व ब्रह्मांड का संहार निश्चित है !
विज्ञान धीरे-धीरे इस ओर भी कदम बढ़ा रहा है !
कम से कम इतना तो अवश्य ही कर देगा कि गेहूँ इतना पैदा हो कि जीवन की परमावश्यक वस्तुएँ हवा, पानी की तरह इफरात हो जायँ। बीज, खाद, सिंचाई, जुताई के ऐसे तरीके और किस्म आदि तो निकलते ही जा रहे हैं जो गेहूँ की समस्या को हल कर दें!
प्रचुरता–शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले साधनों की प्रचुरता–की ओर आज का मानव प्रभावित हो रहा है !
प्रचुरता?–एक प्रश्न चिह्न!
क्या प्रचुरता मानव को सुख और शांति दे सकती है?
'हमारा सोने का हिंदोस्तान'–यह गीत गाइए, किंतु यह न भूलिए कि यहाँ एक सोने की नगरी थी, जिसमें राक्षसता निवास करती थी! जिसे दूसरे की बहू-बेटियों को उड़ा ले जाने में तनिक भी झिझक नहीं थी।
राक्षसता–जो रक्त पीती थी, जो अभक्ष्य खाती थी, जिसके अकाय शरीर था, दस शिर थे, जो छह महीने सोती थी!
गेहूँ बड़ा प्रबल है–वह बहुत दिनों तक हमें शरीर का गुलाम बनाकर रखना चाहेगा! पेट की क्षुधा शांत कीजिए, तो वह वासनाओं की क्षुधा जाग्रत कर बहुत दिनों तक आपको तबाह करना चाहेगा।
तो, प्रचुरता में भी राक्षसता न आवे, इसके लिए क्या उपाय?
अपनी मनोवृत्तियों को वश में करने के लिए आज का मनोविज्ञान दो उपाय बताता है–इंद्रियों के संयमन की ओर वृत्तियों को उर्ध्वगामी करने की।
संयमन का उपदेश हमारे ऋषि-मुनि देते आए हैं। किंतु, इसके बुरे नतीजे भी हमारे सामने हैं–बड़े-बड़े तपस्वियों की लंबी-लंबी तपस्याएँ एक रंभा, एक मेनका, एक उर्वशी की मुस्कान पर स्खलित हो गईं!
आज भी देखिए। गांँधीजी के तीस वर्ष के उपदेशों और आदेशों पर चलनेवाले हम तपस्वी किस तरह दिन-दिन नीचे गिरते जा रहे हैं।
इसलिए उपाय एकमात्र है–वृत्तियों को उर्ध्वगामी करना !
कामनाओं को स्थूल वासनाओं के क्षेत्र से ऊपर उठाकर सूक्ष्म भावनाओं की ओर प्रवृत्त कीजिए।
शरीर पर मानस की पूर्ण प्रभुता स्थापित हो–गेहूँ पर गुलाब की !
गेहूँ के बाद गुलाब–बीच में कोई दूसरा टिकाव नहीं, ठहराव नहीं!
गेहूँ की दुनिया खत्म होने जा रही है। वह दुनिया जो आर्थिक और राजनीतिक रूप में हम सब पर छाई है।
जो आर्थिक रूप से रक्त पीती रही, राजनीतिक रूप में रक्त बहाती रही!
अब दुनिया आने वाली है जिसे हम गुलाब की दुनिया कहेंगे। गुलाब की दुनिया-मानस का संसार-सांस्कृतिक जगत्।
अहा, कैसा वह शुभ दिन होगा हम स्थूल शारीरिक आवश्यकताओं की जंजीर तोड़कर सूक्ष्म मानव-जगत् का नया लोक बनाएँगे?
जब गेहूँ से हमारा पिण्ड छूट जाएगा और हम गुलाब की दुनिया में स्वच्छंद विहार करेंगे!
गुलाब की दुनिया–रंगों की दुनिया, सुगंधों की दुनिया!
भौंरे नाच रहे, गूँज रहे; फुल सूँघनी फुदक रही, चहक रही! नृत्य, गीत–आनंद, उछाह!
कहीं गंदगी नहीं, कहीं कुरूपता नहीं, आंगन में गुलाब, खेतों में गुलाब, गालों पर गुलाब खिल रहे, आँखों से गुलाब झाँक रहा!
जब सारा मानव-जीवन रंगमय, सुगंधमय, नृत्यमय, गीतमय बन जायगा! वह दिन कब आएगा!
वह आ रहा है–क्या आप देख नहीं रहे हैं ! कैसी आँखें हैं आपकी। शायद उन पर गेहूँ का मोटा पर्दा पड़ा हुआ है। पर्दे को हटाइए और देखिए वह अलौकिक स्वर्गिक दृश्य इसी लोक में, अपनी इस मिट्टी की पृथ्वी पर ही!
शौके दीदार अगर है, तो नजर पैदा कर! यह गेहूँ क्या है। और उसने यह भी जता दिया है कि मानव में यह चिर-बुभुक्षा क्यों है।
गेहूँ का गेहुँत्व क्या है, हम जान गए हैं। यह गेहुँत्व उसमें आता कहां से है, हमसे यह भी छिपा नहीं है।
पृथ्वी और आकाश के कुछ तत्व एक विशेष प्रतिक्रिया के पौदों की बालियों में संगृहीत होकर गेहूँ बन जाते हैं। उन्हीं तत्वों की कमी हमारे शरीर में भूख नाम पाती है!
क्यों पृथ्वी की कुड़ाई, जुताई, गुड़ाई! हम पृथ्वी और आकाश के नीचे इन तत्वों को क्यों न ग्रहण करें?
यह तो अनहोनी बात–युटोपिया, युटोपिया!
हाँ, यह अनहोनी बात, युटोपिया तब तक बनी रहेगी, जब तक मानव संहार-काण्ड के लिए ही आकाश-पाताल एक करता रहेगा। ज्यों ही उसने जीवन की समस्याओं पर ध्यान दिया, यह बात हस्तामलकवत् सिद्ध होकर रहेगी!
और, विज्ञान को इस ओर आना है; नहीं तो मानव का क्या, सर्व ब्रह्मांड का संहार निश्चित है!
विज्ञान धीरे-धीरे इस ओर भी कदम बढ़ा रहा है!
कम से कम इतना तो अवश्य ही कर देगा कि गेहूँ इतना पैदा हो कि जीवन की परमावश्यक वस्तुएँ हवा, पानी की तरह इफरात हो जायँ। बीज, खाद, सिंचाई, जुताई के ऐसे तरीके और किस्म आदि तो निकलते ही जा रहे हैं जो गेहूँ की समस्या को हल कर दें!
प्रचुरता–शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले साधनों की प्रचुरता–की ओर आज का मानव प्रभावित हो रहा है!
प्रचुरता?–एक प्रश्न चिह्न!
क्या प्रचुरता मानव को सुख और शांति दे सकती है?
'हमारा सोने का हिंदोस्तान'–यह गीत गाइए, किंतु यह न भूलिए कि यहाँ एक सोने की नगरी थी, जिसमें राक्षसता निवास करती थी! जिसे दूसरे की बहू-बेटियों को उड़ा ले जाने में तनिक भी झिझक नहीं थी।
राक्षसता–जो रक्त पीती थी, जो अभक्ष्य खाती थी, जिसके अकाय शरीर था, दस शिर थे, जो छह महीने सोती थी!
गेहूँ बड़ा प्रबल है–वह बहुत दिनों तक हमें शरीर का गुलाम बनाकर रखना चाहेगा! पेट की क्षुधा शांत कीजिए, तो वह वासनाओं की क्षुधा जाग्रत कर बहुत दिनों तक आपको तबाह करना चाहेगा।
तो, प्रचुरता में भी राक्षसता न आवे, इसके लिए क्या उपाय?
अपनी मनोवृत्तियों को वश में करने के लिए आज का मनोविज्ञान दो उपाय बताता है–इंद्रियों के संयमन की ओर वृत्तियों को उर्ध्वगामी करने की।
संयमन का उपदेश हमारे ऋषि-मुनि देते आए हैं। किंतु, इसके बुरे नतीजे भी हमारे सामने हैं–बड़े-बड़े तपस्वियों की लंबी-लंबी तपस्याएँ एक रम्भा, एक मेनका, एक उर्वशी की मुस्कान पर स्खलित हो गईं!
आज भी देखिए। गांँधीजी के तीस वर्ष के उपदेशों और आदेशों पर चलनेवाले हम तपस्वी किस तरह दिन-दिन नीचे गिरते जा रहे हैं।
इसलिए उपाय एकमात्र है–वृत्तियों को उर्ध्वगामी करना!
कामनाओं को स्थूल वासनाओं के क्षेत्र से ऊपर उठाकर सूक्ष्म भावनाओं की ओर प्रवृत्त कीजिए।
शरीर पर मानस की पूर्ण प्रभुता स्थापित हो–गेहूँ पर गुलाब की!
गेहूँ के बाद गुलाब - बीच में कोई दूसरा टिकाव नहीं, ठहराव नहीं !
गेहूँ की दुनिया ख़त्म होने जा रही है। वह दुनिया जो आर्थिक और राजनीतिक रूप में हम सब पर छाई है।
जो आर्थिक रूप से रक्त पीती रही, राजनीतिक रूप में रक्त बहाती रही !
अब दुनिया आने वाली है जिसे हम गुलाब की दुनिया कहेंगे। गुलाब की दुनिया-मानस का संसार-सांस्कृतिक जगत्।
अहा, कैसा वह शुभ दिन होगा हम स्थूल शारीरिक आवश्यकताओं की जंजीर तोड़कर सूक्ष्म मानव-जगत् का नया लोक बनाएँगे?
जब गेहूँ से हमारा पिण्ड छूट जायगा और हम गुलाब की दुनिया में स्वच्छंद विहार करेंगे !
गुलाब की दुनिया-रंगों की दुनिया, सुगंधों की दुनिया!
भौंरे नाच रहे, गूँज रहे; फुल सूँघनी फुदक रही, चहक रही! नृत्य, गीत-आनंद, उछाह!
कहीं गंदगी नहीं, कहीं कुरूपता नहीं, आंगन में गुलाब, खेतों में गुलाब, गालों पर गुलाब खिल रहे, आँखों से गुलाब झाँक रहा !
जब सारा मानव-जीवन रंगमय, सुगंधमय, नृत्यमय, गीतमय बन जाएगा! वह दिन कब आएगा!
वह आ रहा है–क्या आप देख नहीं रहे हैं ! कैसी आँखें हैं आपकी। शायद उन पर गेहूँ का मोटा पर्दा पड़ा हुआ है। पर्दे को हटाइए और देखिए वह अलौकिक स्वर्गिक दृश्य इसी लोक में, अपनी इस मिट्टी की पृथ्वी पर ही!
शौके दीदार अगर है, तो नज़र पैदा कर!
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