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डारी सारी नील की

Dari sari neel ki

बिहारी

बिहारी

डारी सारी नील की

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और अधिकबिहारी

    डारी सारी नील की, ओट अचूक चुकैं न।

    मो मन-मृगु करबर गहैं, अहे! अहेरी नैन॥

    कवि कह रहा है कि नायक नायिका के नेत्रों से बिद्ध होकर और उसकी नीली साड़ी से युक्त छवि से प्रभावित होकर व्याकुलता का अनुभव कर रहा है। अपनी इसी व्याकुलता के कारण वह दूती से कहता है कि नीली साड़ी की ओट से उसके नेत्रों ने मेरे मन पर अचूक प्रहार किया है। और मेरे मन को बलपूर्वक अपने अधिकार में कर लिया है। चीता झाड़ियों और पत्तों की ओट में छिप-छिपकर मृग के समीप पहुँच जाता है और अकस्मात् उस पर आक्रमण कर मृग को पकड़ लेता है। इस दोहे में अहेरी नेत्र ही कर्बर अर्थात् चीता है, मन ही मृग है, नीली साड़ी की ओट ही झाड़ी की ओट है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बिहारी सतसई (पृष्ठ 198)
    • संपादक : हरिचरण शर्मा
    • रचनाकार : बिहारी
    • प्रकाशन : श्याम प्रकाशन, जयपुर
    • संस्करण : 2007

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