कैसे लिखें कहानी
kaise likhen kahani
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
कहानी किसी एक की नहीं, वह कहने वालों की है, सुनने वालों की भी। इसकी, उसकी, सबकी; सृष्टि समूचे परिवार की। नानी की मुहर इस पर है। इस लोक की प्रजा होने के कारण हर किसी की कहानी लिखी और सुनी जा सकती है।
—कृष्णा सोबती
हिंदी कथाकार
कहानी लेखन पर विचार करने से पहले कहानी के स्वरूप और उसके इतिहास पर कुछ बातचीत करना ज़रूरी है। कहानी क्या है? अलग-अलग लेखकों और विद्वानों ने कहानी की विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं और एक परिभाषा सबको मान्य नहीं है। लेकिन आगे बढ़ने के लिए हम कह सकते हैं कि किसी घटना, पात्र या समस्या का क्रमबद्ध ब्योरा जिसमें परिवेश हो, द्वंद्वात्मकता हो, कथा का क्रमिक विकास हो, चरम उत्कर्ष का बिंदु हो, उसे कहानी कहा जाता है।
वास्तव में कहानी हमारे जीवन से इतनी निकट या उसका इतना अविभाज्य हिस्सा है कि हर आदमी किसी न किसी रूप में कहानी सुनता और सुनाता है। क्या आप जानते हैं कि यदि कोई आदमी किसी बात को बहुत घुमाफिरा कर कह रहा हो तो सुनने वाला कहता है—कहानी न सुनाओ! जल्दी से बताओ कि हुआ क्या? प्रत्येक मनुष्य में अपने अनुभव बाँटने और दूसरों के अनुभवों को जानने की प्राकृतिक इच्छा है अर्थात हम सब अपनी बातें किसी को सुनाना और दूसरों की सुनना चाहते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है हर आदमी में कहानी लिखने का मूल भाव निहित है। यह बात दूसरी है कि कुछ लोगों में इस भाव का विकास हो जाता है और कुछ इसे विकसित नहीं करते।
जहाँ तक कहानी के इतिहास का सवाल है, वह उत्तना ही पुराना है जितना मानव इतिहास, क्योंकि कहानी, मानव स्वभाव और प्रकृति का हिस्सा है। धीरे-धीरे कहानी कहने की आदिम कला का विकास होने लगा। कथावाचक कहानियाँ सुनाते थे। किसी घटना युद्ध, प्रेम, प्रतिशोध के क़िस्से सुनाए जाते थे। मानव स्वभाव का एक गुण कल्पना भी है। सच्ची घटनाओं पर आधारित कथा-कहानी सुनाते-सुनाते उसमें कल्पना का सम्मिश्रण भी होने लगा, क्योंकि प्रायः मनुष्य वह सुनना चाहता है जो उसे प्रिय है। मान लीजिए हमारा नायक कहीं युद्ध में हार ही क्यों न जाए लेकिन यदि वह नायक है तो हम यह सुनना चाहेंगे कि वह कितनी वीरता से लड़ा और कितनी बहादुरी से उसने एक अच्छे उद्देश्य के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। नायक की वीरता का अच्छा बखान करने वाले कथावाचक की सब प्रशंसा करेंगे और उसे इनाम देंगे। कथावाचक सुनने वालों की आवश्यकतानुसार अपनी कल्पना के माध्यम से नायक के गुणों का बखान करेगा। मौखिक कहानी की परंपरा हमारे देश में बहुत पुरानी है और देश के कई भागों, विशेष रूप से राजस्थान में प्रचलित है।
प्राचीन काल में मौखिक कहानियों की लोकप्रियता इसलिए भी थी कि इससे बड़ा संचार का कोई और माध्यम नहीं था। इस कारण धर्म प्रचारकों ने भी अपने सिद्धांत और विचार लोगों तक पहुँचाने के लिए कहानी का सहारा लिया था। यही नहीं बल्कि शिक्षा देने के लिए भी कहानी की विधा का प्रयोग किया गया, जैसे पंचतंत्र की कहानियाँ लिखी गई जो बहुत शिक्षाप्रद हैं। इस तरह आदिकाल में ही कहानी के साथ ‘उद्देश्य’ का सम्मिश्रण हो गया था जो आगे चलकर और विकसित हुआ।
कहानी का केंद्रीय बिंदु कथानक है। कहानी का केंद्रीय बिंदु कथानक होता है क्या? कहानी का वह संक्षिप्त रूप जिसमें प्रारंभ से अंत तक कहानी की सभी घटनाओं और पात्रों का उल्लेख किया गया हो। उदाहरण के लिए प्रेमचंद की कहानी कफ़न दस-बारह पृष्ठों की कहानी है लेकिन इसका कथानक दस-बारह पंक्तियों में भी लिखा जा सकता है। घीसू और माधव गाँव के दो ग़रीब और आलसी किसान हैं। बुधिया माधव की पत्नी है। वह प्रसव पीड़ा से कोठरी के अंदर तड़प रही है। कोठरी के बाहर घीसू और माधव अलाव में आलू भून कर खाने की तैयारी कर रहे हैं। बुधिया प्रसव पीड़ा से मर जाती है। दोनों के पास उसका कफ़न ख़रीदने के पैसे नहीं हैं। वे गाँव के ज़मींदार के पास पैसे माँगने जाते हैं। ज़मींदार पैसे दे देता है। गाँव के दूसरे संपन्न लोग भी पैसे देते हैं। घीसू और माधव कफ़न ख़रीदने बाज़ार जाते है पर, कफ़न ख़रीदने के बजाए उन पैसों की शराब पीते हैं और नशे में मदहोश होकर गाना गाते मदिरालय में गिर पड़ते हैं।
यह कहा जा सकता है कि कथानक कहानी का एक प्रारंभिक नक़्शा होता है। उसी तरह जैसे मकान बनाने से पहले एक बहुत प्रारंभिक नक़्शा काग़ज़ पर बनाया जाता है। कहानी का कथानक आमतौर पर कहानीकार के मन में किसी घटना, जानकारी, अनुभव या कल्पना के कारण आता है। कभी कहानीकार की जानकारी में पूरा कथानक आता है और कभी कथानक का एक सूत्र आता है, केवल एक छोटा-सा प्रसंग या कोई एक पात्र कथाकार को आकर्षित करता है। इसके बाद कथाकार उसे विस्तार देने में जुट जाता है। विस्तार देने का काम कल्पना के आधार पर किया जाता है पर यह समझना बहुत ज़रूरी है कि कहानीकार की कल्पना ‘कोरी कल्पना’ नहीं होती। ऐसी कल्पना नहीं होती जो असंभव हो। बल्कि ऐसी कल्पना होती है जो संभव हो। कल्पना के विस्तार के लिए लेखक के पास जो सूत्र होता है उसी के माध्यम से कल्पना आगे बढ़ती है। यह सूत्र लेखक को एक परिवेश देता है, पात्र देता है, समस्या देता है। इनके आधार पर लेखक संभावनाओं पर विचार करता है और एक ऐसा काल्पनिक ढाँचा तैयार करता है जो संभावित हो और लेखक के उद्देश्यों से भी मेल खाता हो। उदाहरण के लिए लेखक ने अस्पताल के बाहर एक मरीज़ को देखा। जानकारी मिली कि वह मरीज़ पिछले एक सप्ताह से लगातार आ रहा है पर अभी तक उसे यह मौक़ा नहीं मिल सका है कि डॉक्टर को दिखा सके। इस जानकारी के बाद लेखक की कल्पना अस्पताल, वहाँ की व्यवस्था, पात्रों आदि की गतिविधियों पर केंद्रित हो जाएगी। इसके साथ ही वह अपना उद्देश्य भी तय करेगा। क्या वह अस्पताल केंद्रित कहानी लिखना चाहता है या वह केवल आप को पीड़ा तक अपने को सीमित रखेगा या क्या वह इस मानवीय त्रासदी को वर्तमान सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों से जोड़कर कथानक तैयार करेगा।
आमतौर पर कथानक में प्रारंभ, मध्य और अंत—अर्थात कथानक का पूरा स्वरूप होता है। कथानक न केवल आगे बढ़ता है बल्कि उसमें द्वंद्व के तत्त्व भी होते हैं जो कहानी को रोचक बनाए रखते हैं। द्वंद्र के तत्त्वों से अभिप्राय यह है कि परिस्थितियों में इस काम के रास्ते में यह बाधा है। यह बाधा समाप्त हो गई तो आगे कौन-सी बाधा आ सकती है? या हो सकता है एक बाधा के समाप्त हो जाने या किसी निष्कर्ष पर पहुँच जाने के कारण कथानक पूरा हो जाए। कथानक की पूर्णता की शर्त यही होती है कि कहानी नाटकीय ढंग से अपने उद्देश्य को पूरा करने के बाद समाप्त हो। अंत तक कहानी में रोचकता बनी रहनी चाहिए। यह रोचकता द्वंद्व के कारण ही बनी रह पाएगी।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, हर घटना, पात्र, समस्या का अपना देशकाल और स्थान होता है। कथानक का स्वरूप बन जाने के बाद कहानीकार कथानक के देशकाल तथा स्थान को पूरी तरह समझ लेता है, क्योंकि यह कहानी को प्रामाणिक और रोचक बनाने के लिए बहुत आवश्यक है। उदाहरण के लिए यदि अस्पताल का कथानक है तो अस्पताल का पूरा परिवेश, ध्वनियाँ, लोग, कार्य-व्यापार और लोगों के पारस्परिक संबंध, नित्य घटने वाली घटनाएँ आदि का जानना आवश्यक है। लेखक जब अपने कथानक के आधार पर कहानी को विस्तार देता है तो उसमें इन सब जानकारियों की बहुत आवश्यकता होती है।
देशकाल, स्थान और परिवेश के बाद कथानक के पात्रों पर विचार करना चाहिए। हर पात्र का अपना स्वरूप, स्वभाव और उद्देश्य होता है। कहानी में वह विकसित भी होता है या अपना स्वरूप भी बदलता है। कहानीकार के सामने पात्रों का स्वरूप जितना स्पष्ट होगा उतनी ही आसानी उसे पात्रों का चरित्र-चित्रण करने और उसके संवाद लिखने में होगी। इस कारण पात्रों का अध्ययन कहानी की एक बहुत महत्त्वपूर्ण और बुनियादी शर्त है। इसके अंतर्गत पात्रों के अंतर्संबंध पर भी विचार किया जाना चाहिए। कौन-से पात्र की किस-किस परिस्थिति में क्या प्रतिक्रिया होगी, यह भी कहानीकार को पता होना चाहिए। दरअसल कहानीकार और उसके पात्रों के साथ निकटतम संबंध स्थापित होना चाहिए।
पात्रों का चरित्र-चित्रण करने अर्थात उन्हें कहानी में कथानक की आवश्यकतानुसार अधिक से अधिक प्रभावशाली ढंग से लाने के कई तरीक़े हैं। चरित्र चित्रण का सबसे सरल तरीक़ा पात्रों के गुणों का कहानीकार द्वारा बखान है। जैसे—मुरलीधर बड़ा दानी है, वह दूसरों का ध्यान रखता है, दूसरों के लिए उसकी जान हाज़िर रहती है आदि-आदि। पर यह तरीक़ा प्रभावहीन और ‘आउटडेटेड’ है। पात्रों का चरित्र-चित्रण उनके क्रिया-कलापों, संवादों तथा दूसरे लोगों द्वारा बोले गए बहुत संवादों के माध्यम से ही प्रभावशाली होता है। उदाहरण के लिए—मुरलीधर ने एक ग़रीब आदमी को सर्दी से ठिठुरते हुए देखा तो अपनी शाल उसे दे दी। या मुरलीधर का दोस्त स्कूल में फ़ीस जमा कराने के लिए लाइन से बाहर निकल आया क्योंकि उसके पास पूरे पैसे नहीं थे। मुरलीधर ने दोस्त को बताए बिना फ़ीस जमा करा दी। मतलब यह कि पात्र जो काम करते हैं उनसे उनका सशक्त चित्रण होता है। दूसरे पात्र किसी का चरित्र चित्रण अपने संवादों के माध्यम से कर सकते हैं जैसे, राजीव अपने और मुरलीधर के मित्र प्रयाग से कह रहा है—यार इतनी बड़ी प्रॉब्लम तो मुरलीधर ही ‘सॉल्व’ कर सकता है। चलो उसी के पास चलें।
पात्रों का चरित्र-चित्रण, पात्रों की अभिरुचियों के माध्यम से भी होता है। समाज में अलग-अलग प्रकार के लोगों की अपने स्वभाव के अनुसार अलग-अलग अभिरुचियाँ होती हैं। मान लीजिए एक आदमी जंगल में जाकर ख़तरनाक जानवरों की तसवीरें खींचता है। निश्चित रूप से यह साहसी आदमी होगा। एक आदमी वेश्यावृत्ति कराता है, झूठ बोलता है, दलाली करता है, कर्ज़ वापस नहीं करता। ऐसे आदमी का अपना अलग स्वरूप है।
कहानी में पात्रों के संवाद बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। संवाद के बिना पात्र की कल्पना मुश्किल है। संवाद ही कहानी को, पात्र को स्थापित, विकसित करते हैं और कहानी को गति देते हैं, आगे बढ़ाते हैं। जो घटना या प्रतिक्रिया कहानीकार होती हुई नहीं दिखा सकता, उसे संवादों के माध्यम से सामने लाता है। इसलिए संवादों का महत्त्व बराबर बना रहता है। पात्रों के संवाद लिखते समय यह अवश्य ध्यान में रहना चाहिए कि संवाद पात्रों के स्वभाव और पूरी पृष्ठभूमि के अनुकूल हों। वह उसके विश्वासों, आदशों तथा स्थितियों के भी अनुकूल होने चाहिए। संवाद लिखते समय लेखक ग़ायब हो जाता है और पात्र स्वयं संवाद बोलने लगते हैं। उदाहरण के लिए किसी मज़दूर के संवाद ऐसे होने चाहिए कि केवल संवाद सुनकर ही श्रोता को पता चल जाए कि कौन बोल रहा है, यह आदमी क्या करता है, इसकी पृष्ठभूमि क्या है आदि-आदि। संवाद छोटे, स्वाभाविक और उद्देश्य के प्रति सीधे लक्षित होने चाहिए। संवादों का अनावश्यक विस्तार बहुत-सी जटिलताएँ पैदा कर देता है और कहानी में झोल आ जाता है।
कथानक के अनुसार कहानी चरम उत्कर्ष अर्थात क्लाइमेक्स की ओर बढ़ती है। चरम उत्कर्ष का चित्रण बहुत ध्यानपूर्वक करना चाहिए क्योंकि भावों या पात्रों के अतिरिक्त अभिव्यक्ति चरम उत्कर्ष के प्रभाव को कम कर सकती है। कहानीकार की प्रतिबद्धता या उद्देश्य की पूर्ति के प्रति अतिरिक्त आग्रह कहानी को भाषण में बदल सकते हैं। सर्वोत्तम यह होता है कि चरम उत्कर्ष पाठक को स्वयं सोचने और लेखकीय पक्षधर की ओर आने के लिए प्रेरित करें लेकिन पाठक को यह भी लगे कि उसे स्वतंत्रता दी गई है और उसने जो निर्णय निकाले हैं, वे उसके अपने हैं।
पहले भी संकेत दिया गया है कि कथानक के बुनियादी तत्त्वों में द्वंद्व का महत्त्व बहुत अधिक है। द्वंद्व ही कथानक को आगे बढ़ाता है। उदाहरण के लिए अगर दो आदमी किसी बात पर सहमत हैं तो उनके बीच कोई द्वंद्व नहीं है और बातचीत आमतौर से आगे नहीं बढ़ सकती है। लेकिन असहमति है तो बातचीत सरलता से आगे बढ़ेगी। कहानी में द्वंद्व दो विरोधी तत्त्वों का टकराव या किसी की खोज में आने वाली बाधाओं, अंतर्द्वंद्व आदि के कारण पैदा होता है। कहानीकार अपने कथानक में द्वंद्व के बिंदुओं को जितना स्पष्ट रखेगा कहानी भी उतनी ही सफलता से आगे बढ़ेगी।
कहानी लिखने की कला सीखने का सबसे अच्छा और सीधा रास्ता यह है कि अच्छी कहानियाँ पढ़ी जाएँ और उनका विश्लेषण किया जाए। कहानी लेखन सिखाने की प्रक्रिया में यही सबसे अधिक कारगर माध्यम होगा।
जब मैंने पहली कहानी लिखी
चाहिए तो यह था कि मेरी पहली कहानी प्रेम कहानी होती। उम्र के एतबार से भी यहीं सुनासिब था और अदब के एतबार से भी। पर प्रेम के लिए (और प्रेम कहानी के लिए भी) अनुकूल परिस्थितियाँ हो तब काम बने।
मैंने वहीं लिखा जो मेरे जैसे माहौल में पलने वाले सभी भारतीय युवक लिखते है—अबला नारी की कहानी। हिंदी के अधिकांश लेखकों का तो साहित्य में पदार्पण अबला नारी की कहानी से ही होता है और यह दुखांत होनी चाहिए। मैंने भी वैसा ही किया। बड़ी बेमतलब, बेतुकी कहानी थी, न सिर, न पैर और शुरू से आख़िर तक मनगढ़ंत, पर चौक अबला नारी के बारे में थी और दुखांत थी, इसलिए वानप्रस्थी जी को भी कोई एतराज नहीं हो सकता था, और पिताजी को भी नहीं, इसलिए कहानी, कालिज पत्रिका में स्थान पा गई।
पर इसके कुछ ही देर बाद एक प्रेमकहानी सचमुच क़लम पर आ ही गई। नख-शिख से प्रेम कहानी ही थी, पर किसी दूसरी दुनिया की कहानी, जिससे मैं परिचित नहीं था। तब मैं कालिज छोड़ चुका था, और पिताजी के व्यापार में हाथ बँटाने लगा था। कालिज के दिन पीछे छूटते जा रहे थे, और आगे की दुनिया बड़ी ऊटपटाँग और बेतुकी सी नज़र आ रही थी।
हर दूसरे दिन कोई-न-कोई अनूठा अनुभव होता। कभी अपने घुटने छिल जाते, कभी किसी दूसरे को तिरस्कृत होते देखता। मन उचट-उचट जाता। तभी एक दिन बाज़ार में... मुझे दो प्रेमी नज़र आए।
शाम के वक़्त, नमूनों का पुलिंदा बग़ल में दबाए मैं सदर बाज़ार से शहर की ओर लौट रहा था, जब सरकारी अस्पताल के सामने, बड़े से नीम के पेड़ के पास मुझे भीड़ खड़ी नज़र आई। भीड़ देखकर मैं यों भी उतावला हो जाया करता था, क़दम बढ़ाता पास जा पहुँचा। अंदर झाँककर देखा तो वहाँ दो प्रेमियों का तमाशा चल रहा था। टिप्पणियाँ और ठिठोली भी चल रही थी। घेरे के अंदर एक युवती खड़ी रो रही थी और कुछ दूरी पर एक युवक ज़मीन पर बैठा, दोनों हाथों में अपना सिर थामे, बार-बार लड़की से कह रहा था, “राजो, दो दिन और माँग खा। मैं दो दिन में तंदुरुस्त हो जाऊँगा। फिर मैं मजूरी करने लायक हो जाऊँगा।”
और लड़की बराबर रोए जा रही थी। उसकी नीली नीली आँखें रो-रोकर सूज रही थीं।
“मैं कहाँ से माँगूँ? मुझे अकेले में डर लगता है।”
दोनों प्रेमी, आस-पास खड़ी भीड़ को अपना साक्षी बना रहे थे।
“देखो बाबूजी, मैं बीमार हूँ। इधर अस्पताल में पड़ा हूँ। मैं कहता हूँ दो दिन और माँग खा, फिर मैं चंगा हो जाऊँगा।”
लड़की लोगों को अपना साक्षी बनाकर कहती, “यहाँ आकर बीमार पड़ गया, बाबूजी में क्या करूँ? इधर पुल पर मजूरी करती रही हूँ, पर यहाँ मुझे डर लगता है।”
इस पर लड़का तड़पकर कहता, “देख राजो, मुझे छोड़कर नहीं जा। इसे समझाओ बाबूजी, यह मुझे छोड़कर चली जाएगी तो इसे मैं कहाँ ढूँढूँगा।”
“यहाँ मुझे डर लगता है। मैं रात को अकेली सड़क पर कैसे रहूँ?”
पता चला कि दोनों प्रेमी गाँव से भागकर शहर में आए हैं, किसी फ़क़ीर ने उनका निकाह भी करा दिया है, फटेहाल ग़रीबी के स्तर पर घिसटने वाले प्रेमी शहर पहुँचकर कुछ दिन तक तो लड़के को मज़दूरी मिलती रही। पास ही में एक पुल था। वह पुल के एक छोर से सामान उठाता और दूसरे छोर तक ले जाता, जिस काम के लिए उसे इकन्नी मिलती। कभी किसी को साइकल तो कभी किसी का गट्ठर। हनीमून पूरे पाँच दिन तक चला। दोनों ने न केवल खाया-पिया, बल्कि लड़के ने अपनी कमाई में से जापानी छींट का एक जोड़ा भी लड़की को बनवा कर दिया, जो उन दिनों अढ़ाई आने गज में विका करती थी।
दोनों रो रहे थे और तमाशबीन खड़े हँस रहे थे। कोई लड़की की नीली आँखों पर टिप्पणी करता, कोई उनके ‘ऐसे-वैसे’ प्रेम पर, और सड़क की भीड़ में खड़े लोग केवल आवाज़ें ही नहीं कसते, वे इरादे भी रखते हैं। और एक मौलवीजी लड़की को पीठ सहलाने लगे थे और उसे आश्रय देने का आश्वासन देने लगे थे। और प्रेमी बिलख-बिलख कर प्रेमिका से अपने प्रेम के वास्ते डाल रहा था।
तभी, पटाक्षेप की भाँति अँधेरा उतरने लगा था और पीछे अस्पताल की घंटी बज उठी थी जिसमें प्रेमी युवक भरती हुआ था और वह गिड़गिड़ाता, चिल्लाता, हाथ बाँधता, लड़की से दो दिन और माँग खाने का प्रेमालाप करता अस्पताल की और सरकने लगा और मौलवीजी सरकते हुए लड़की के पास आने लगे, और घबराई, किंकर्तव्यविमूढ़ लड़की, मृग-शावक की भाँति सिर से पैर तक काँप रही थी....
नायक भी था, नायिका भी थी, खलनायक भी था, भाव भी था, विरह भी और कहानी का अंत अनिश्चय के धुँधलके में खोया हुआ भी था।
मैं यह प्रेम-कहानी लिखने का लोभ संवरण नहीं कर सका। लुक छिपकर लिख ही डाली, जो कुछ मुद्दत बाद ‘नीली आँखें’ शीर्षक से, अमृतराय जी के संपादकत्व में ‘हंस’ में छपी, इसका मैंने आठ रुपए मुआवज़ा भी वसूल किया जो आज के आठ सौ रुपए से भी अधिक था।
- पुस्तक : अभिवक्ति और माध्यम (पृष्ठ 120)
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.