सृजनात्मकता का आनंद
srijanatmakta ka anand
हिंदुस्तान की जो दार्शनिक पद्धतियाँ हैं उनमें जिसे हम आत्म कहते हैं, वह बहुत अलग है, वह इन सब सृष्टियों से परे है जो आदमी प्रकट कर रहा है। प्रकट तो वह प्रकृति के माध्यम से करता है। उसे प्रकृति कह लीजिए या पारंपरिक तौर पर माया कह लीजिए, उसी के माध्यम से प्रकट करता है। भ्रम प्रकट करने का एक साधन है। माया एक साधन है। समझे तो मज़ा ही इसी ‘भ्रम’ में है, चाहे वह फ़िल्म हो चाहे कविता हो। हरेक में सृजनात्मकता का एक ऐसा भ्रम यानी एक सृष्टि का ऐसा भ्रम है कि भ्रम के बग़ैर वह रची ही नहीं जाती और जो सेल्फ़ की कल्पना है वहाँ ऐसा कोई भ्रम नहीं है। वहाँ ऐसा सब कुछ नहीं है। इन दोनों में सामंजस्य बैठाना बहुत कठिन है। जो पश्चिम की परंपरा से वाक़िफ़ हैं−और यह परंपरा सारी दुनिया में चल रही है−वो यह परेशानी महसूस करते हैं। उनके लिए यह सामंजस्य बैठाना मुश्किल है : ऐसा सेल्फ़ जिसमें कुछ नहीं है जो सब चीज़ों से परे है और जिसकी शुरूआत और अंत का कोई हिसाब नहीं है, लेकिन तब भी है। अपने आप में अनुभव−मात्र है। एक तरफ़ ऐसा सेल्फ़ और दूसरी ओर सृजनात्मकता का आनंद। तरह-तरह की सृजनात्मकता का आनंद, पेंटिंग में, संगीत में, लेखन में।
यह आनंद आदमी को समझ से आता है। एसा हमने सुना है। जब वो कोई चीज़ समझ जाता है तब उसे उसका आनंद महसूस होता है। हमें समझना यह है कि तभी आदमी को आनंद महसूस होता है, जैसे बच्चे को भी कोई चीज़ समझ में आ जाए तो हँस पड़ेगा। मुझे लगता है कि फ़िल्म में और संगीत में भी कोई चीज़ जब समझ में आ जाती है तो आनंद महसूस होता है। इसको और सेल्फ़ के विचार को जोड़ना बहुत मुश्किल काम है। मैंने तो कभी ऐसी कोशिश तक नहीं की। मुझे लगता है कि आत्म की अंतर्निष्ठता वो है जिससे आपकी सृजनात्मकता का बहुत सीधा तअल्लुक़ हो सकता है। अगर कोई ऐसा अंतर्निष्ठ सेल्फ़ है तो हमें लगेगा कि वह वही सृजन कर रहा है। मुझे ऐसा नहीं लगता कि कलाकार में जो रचा रहा है उसे कलाकार का ‘मैं’ कहा जा सकता है। हमें लगता है कि कलाकार के जितने विचार हैं वे बिना बुलाए आ जाते हैं। ‘मैं सोच रहा हूँ’ इससे कुछ बनता नहीं है। आपने एक ऐसा सवाल छेड़ दिया है जो आज तक किसी ने छेड़ा नहीं है। उसका कोई रूप नहीं है, वह कुछ नहीं है, उसको किसी भी चीज़ से बाँधना बहुत मुश्किल है। मान लीजिए कि वह ‘मैं’ नहीं है तो किस तरह से वह सृजन करता है, यह जानना भी बहुत मुश्किल है। आपका अंतर्निष्ठ सेल्फ़ का जो विचार है उसमें आप सेल्फ़ की परिभाषा क्या देते हैं?
आनंद किसका है−सेल्फ़ का अपना अथवा विषय की उपलब्धि का? जब तक समझ नहीं रहा, एक विचलित अवस्था रहती है। समझते ही शांत हो जाती है−उस क्षण के लिए कम-से-कम, आनंद उस शांति से जुड़ा है। ऐसी बुद्धियाँ भी होंगी जो विचलित होती ही नहीं लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे किसी व्यापक आनंद में व्यस्त हैं। विचलित होने से ही शांत समझना। आनंद में तो न विचलित न शांत। आकांक्षा विचार से पूर्व है। पूर्व विचार। जन्म से ही सिद्ध है। बच्चा, आदमी का अथवा जानवर का, सीधा माँ से स्तन को ढूँढता है, जन्मते ही। आकांक्षा को समझने के लिए इसे एक तरह मान लें। बच्चे और स्तन को। आकांक्षाओं के सिद्ध होने और न होने में ही विचार छिपा है। न होने में अधिक, यदि वह उस दु:ख के प्रण को सह ले। विचार में समझ, समझ में आनंद। एक वाक्य है : अच्छा लगता है। इसके तीन भाग हैं। एक ‘है’ दूसरा ‘लगता है', तीसरा ‘अच्छा लगता है’। ‘अच्छा’ ‘लगता है’ तक पहुँचा देता है।
- पुस्तक : थाती
- रचनाकार : मणि कौल
- संस्करण : नवम्बर 2001
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