मण तरु पाँच इंदि तसु साहा
man taru panch indi tasu saha
मण तरु पाँच इंदि तसु साहा।
आसा बहल पता फल वाहा॥
वरगुरुवअणे कुठारे छिज।
काह्न भणइ तरु पुण न उइजअ॥
बाढ़इ सो तरु सुभासुम पाणी।
छेवइ विदुजन गुरुपरिमाणी॥
जो तरु छेवइ भेउ न जाणइ।
सड़ि पड़िआँ रे मूढ़ ता भव माणइ॥
सुणतरु (वर) गअण कुठार।
छेवह सो तरु मूल न डार॥
मन एक तरु है, पाँच इंद्रियाँ जिसकी शाखाएँ हैं, आशा उसके पत्ते हैं, जो फूल और फल के वाहक हैं। गुरु के वचनरूपी कुठार द्वारा (उस तरु को) काट डालो। कान्हपा कहते हैं— वह मनरूपी तरु पुनः संसार भूमि में उत्पन्न नहीं होगा। शुभ और अशुभ (कर्मरूपी) जल को ग्रहण कर वह तरु फलता-फूलता है। विद्वत् योगी गुरु को प्रमाण रूप में ग्रहण कर उस तरु को काट डालते हैं। जो इस तरु को काटना और विच्छेद करना नहीं जानता, वह मूर्ख संसार की दुःख जलधि में पड़कर जन्मों-जन्मों तक सड़ता रहता है। इसलिए, अविद्यारूपी शून्यतरु को—गगनरूपी कुठार द्वारा नष्ट करो, जिससे उस तरु का मूल और डाल शेष न रहे।
- पुस्तक : सहज सिद्ध : चर्यागीति विमर्श (पृष्ठ 203)
- संपादक : रणजीत साहा
- रचनाकार : कण्हपा
- प्रकाशन : यश पब्लिकेशन्स
- संस्करण : 2006
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