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विछोह की ख़ूबसूरती अधूरेपन में है

विछोह की ख़ूबसूरती अधूरेपन में है

सुदीप्ति 20 सितम्बर 2023

रज़िया सुल्तान में जाँ निसार अख़्तर  का लिखा और लता मंगेशकर का गाया एक यादगार गीत है : ‘‘ऐ दिल-ए-नादाँ...’’, उसके एक अंतरे में ये पंक्तियाँ आती हैं :

‘‘हम भटकते हैं, क्यूँ भटकते हैं, दश्त-ओ-सेहरा में
ऐसा लगता है मौज प्यासी है अपने दरिया में’’

वास्तव में हम दश्त या सहरा में नहीं, अपनी-अपनी ज़िंदगी के ठहराव में, अपने प्यार में, अपने घर में, अपनी बसी-बसाई दुनिया में भी भटकते रहते हैं। इस भटकने के मूल में कई वज़हें हो सकती हैं। उन ‘कई’ में एक को ऐसे भी कहा जा सकता है–विछोह।

पता नहीं क्यों मुझे विरह या हिज्र से कुछ अलग बात लगती है विछोह में। वैसे तो आम तौर पर विरह और विछोह एक ही भाव के लिए प्रयुक्त होते हैं, लेकिन मेरे मन में इनका भाव भिन्न हो उठता है। शब्दों की यही ताक़त है कि वे हमारे मन के भाव को एक अन्य धरातल पर  मस्तिष्क से जोड़कर कई बार कुछ अन्य और ख़ास बिंब बना देते हैं। मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में इन शब्दों के लिए अर्थ कुछ यों है–प्रेम की स्वीकृति और मिलन के पश्चात प्रेमी से अलग होने का दुख, दूरी का दुख है–विरह। लेकिन प्रेम के मद्धिम मगर अनवरत चलते अहसास के साथ प्रेमी-प्रेमिका में परिणत हुए बिना हमेशा के लिए अलग हो जाने की जो कसक है–वह है विछोह। तो मेरी समझ में विरह में साथ रहना छूटता है और संयोग की उम्मीद बनी रहती है, लेकिन विछोह में  मन में विशेष छोह या मोह बना रहता है—बिना किसी उम्मीद के भी। संभव है, शब्द-विशेषज्ञ कहें कि ऐसी कोई बात नहीं! पर मेरे भाव-जगत में तो ऐसा है। 

बहरहाल, विछोह के केंद्र में होती है ऐसी याद जो किसी परिणाम की आकांक्षा के बग़ैर दिल में मिलने लालसा हमेशा बनाए रखती है। प्रेम में मिलने के बाद मिलन मानो कोई पूर्णता हो, मिलकर जैसे एक वृत्त बन जाता है, जैसे दो रेखाएँ अंततः एक घेरा बना लेती हैं, जैसे जीवन में सब सुंदर हो जाता है, जैसे सब ठहर जाता है; पर जो विछोह है वह हमेशा एक कचोट और उत्कंठा से भरी तड़प बनाए रखता है। उसमें छूट जाने की वह कसक है, जिसे हम पकड़ नहीं सकते। जो मोह के धागे अपने तंतुओं से अलग हो गए, उदासी से भरी उनकी ललक हमें हमेशा तड़पाती है। उसी के लिए हम भटकते हैं। उसे हम फिर-फिर देखते हैं और हमारा दिल मिलन के लिए नहीं, उसकी ख़ातिर भटकन में सुकून पाता है। वह भटकन पूरी हो जाए तो भी त्रासदी है, अगर बची रह जाए तब तो एक शोकगीत या गहन उदास कविता की तरह अमर है ही।

इसी उदासी की कहानी है फ़िल्म–‘पास्ट लाइव्स’। इस फ़िल्म को जब मैंने देखा, उसकी समाप्ति के बाद कुछ देर तक रोती रही। ऐसा अरसे बाद किसी फ़िल्म के साथ हुआ। मानो सीने की हड्डियों के बीच दिल जैसी जो शै है, जिसे डॉक्टर सिर्फ़ गति और धड़कनों से जोड़कर समझाते हैं, वह निचुड़कर ख़ुद बाहर आ रहा हो। मेरे लिए तो यह एक अच्छी बात है। एक ऐसी फ़िल्म जिसे देखकर रोना आए या जिसे देखकर रोते रहें, मेरे लिए अच्छी फ़िल्म की कसौटी है। ऐसा नहीं था कि इसका अंत किसी तरह बदल सकता था या कहूँ तो ऐसा नहीं था कि इसका अंत मुझे कुछ बदलना था, इसलिए रोना आया हो। 

कभी-कभी आप किसी सुंदर चीज़ को देखकर बेसाख़्ता रो पड़ते हैं। रोना बुरी बात नहीं है। शकील बदायूँनी ने तो कहा ही है :

‘‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया।’’

अच्छी फ़िल्में स्क्रीन पर लिखी हुई कविता हैं—ऐसी बात हमने सैकड़ों बार पढ़ी होंगी। इसलिए यह एक उबाऊ बात ही है, लेकिन जब मैं किसी चीज़ को एक साथ सुंदर, संगीतमय, प्रवाहमय, भावमग्न और दिल में तीर की तरह गहरे धँसने वाला पाती हूँ, तब उसे कह पाती हूँ कि यह कविता की तरह है। 

फ़िल्म की कहानी और दृश्यों के बारे में बहुत सारी बातें हो सकती हैं, लेकिन मुझे सबसे अधिक पसंद है उस बारे में बात करना, जहाँ कोई फ़िल्म मुझे लेकर जाती है या मुझे छूती है। यानी मेरी भाव-धारा, मेरे भावात्मक उत्थान या मन के किसी ऐसे कोने में पहुँच जाने के बारे में जहाँ इससे पहले मैं गई नहीं हूँ और कोई फ़िल्म लेकर चली जाए। फ़िल्म सिर्फ़ किसी डायरेक्टर की नहीं, दर्शक की भी अपनी एक यात्रा होती है। इस फ़िल्म ने मुझे सिखाया कि प्रेम अपनी पूर्णता में कई-कई बार होता है, हो सकता है। अपनी व्यवहारिकता में भी वह बहुत उदात्त हो सकता है। जिसे हम विछोह या छूट गए जीवन की याद या अधूरा रह गया प्रेम मानते हैं, वह जितना रूमानी दिखता है; उससे कम रूमानी नहीं होता है—जीवन में नून-रोटी वाला प्रेम।

जब आप अपने छूट गए प्रिय के लिए या आगे बढ़ गए प्रेमी के लिए या कभी न मिलने वाले प्रेमी के लिए तड़प में भरकर रो पड़ते हैं तो उस समय जो आपको अपने सीने से लगा लेता है, उसका प्रेम भी उतना ही वास्तविक होता है। किसी रिश्ते में सबसे ख़ूबसूरत बात यही है कि आप अपने मन को अपने प्रिय के सामने अनावृत्त कर सकें और वह आपको गले लगा ले। वह अपने असुरक्षा-बोध में, अपनी कमियों में, अपने भय में भी आपके साथ खड़ा रहे, क्योंकि उसे आपसे इतनी मोहब्बत जो है। इस लिहाज़ से आर्थर का प्रेम मनुष्येतर और दुनिया के तौर-तरीक़ों से परे नहीं है। वह इतना व्यावहारिक है, जितना एक इमिग्रेंट के लिए ग्रीन कार्ड; फिर भी जब वह कहता है कि मुझे डर लगता है कि तुम एक ऐसी भाषा में सपने देखती हो जिसे मैं बिल्कुल नहीं जानता तो मेरा मन उसके लिए भी दुख उठता है। स्क्रीन हो या जीवन, आकुल-व्याकुल करने वाली प्रेम कहानियाँ हमें मथ देती हैं; जबकि साधारणता का सौंदर्य नहीं दिखता है।

बतौर लेखक और निर्देशक सेलिन सॉंग की पहली ही फ़िल्म ‘पास्ट लाइव्स’ यर्निंग और लॉन्गिंग की इंटेंस कहानी है। भावनाओं के गहन उथल-पुथल के बीच स्मृति-वर्तमान और दिवास्वप्न के बीच झूलती कहानियों के हमारे जैसे दीवाने दर्शकों के लिए यह विज़ुअल डिलाइट है। बचपन में जब कोई बिछड़ जाता है तो उसी समय का भाव, वैसी ही चाह मानो किसी ऐसे बोतल में बंद हो जाती है, जिस पर टाइम और स्पेस का कोई असर नहीं पड़ता है। वह फ्रीज़ रहती है। नोरा और हे संग स्कूल में साथ थे। देखकर लगता है कि वह अपर मिडिल स्कूल में होंगे, जब नोरा या तब की ना यंग के माइग्रेशन के साथ वे बिछड़ गए। कहानी शुरू होती है, तब पता चलता है कि 24 साल पहले वे बच्चे थे और कुछ समय बाद अलग हुए थे। एक बार ऑनलाइन माध्यम से 12 साल पहले मिले थे। वैसे हमारे यहाँ भी 12 साल का अर्थ एक युग होता है। यानी वे एक युग के बाद मिले। वह भी इंटरनेट की जादुई दुनिया में, फिर खो गए और फिर एक ही हो यानी 12 साल के बाद मिले–आमने-सामने।

20 सालों बाद पहला प्यार नोरा से मिलने के लिए न्यूयॉर्क आ रहा होता है। वह 12 साल पहले नहीं आया और अब बहाने चाहे जो हों, सिर्फ़ उसी से मिलने आ रहा; इसके डिनायल में उन दोनों के अलावा कोई और नहीं है। इस बीच उनकी ज़िंदगियों में जो कुछ भी घट चुका है, वे जितना भी बदल चुके हों, पर एक दूसरे के लिए उनकी कसक अभी बाक़ी है। उन दोनों को भी नहीं पता है कि 20 सालों के बाद मिलना भी दिल को ऐसे तड़पाने वाला होगा। जो छूट गया है, उसे पाना नहीं है; लेकिन जो छूट गया है, वह किसी और जन्म का अटका हुआ साथ है या किसी और जन्म में मिलने वाली उम्मीद है; क्या पता!

यह फ़िल्म बताती है कि कोरियन भाषा और समाज में एक अवधारणा है in yun की। ख़ासतौर पर लोगों के आपसी संबंधों के बारे में। मतलब जो एक दूसरे से टकराते हैं, नियति उन्हें एक-दूसरे के पास ले आती है किसी न किसी रूप में। वह किसी पिछले जन्म से तय होता है और कई जन्मों की परिणति होती है कि आपस में खींचे चले जाते हैं। न्यूयॉर्क में रहने लगी नोरा वैसे तो कहती है यह दिमाग़ से खेलने का एक तरीका है। लेकिन यह हमारे मन का एक अलग रहस्यात्मक रूप है कि किसी-किसी से मिलकर हम उससे जुड़ाव महसूस करते हैं और किसी-किसी से दूर भागते हैं। आख़िर कोई क्यों लगता है अपने जैसा? पिछले जन्मों में नहीं तो प्रकृति में इसका कोई तो रहस्य होगा। प्राचीन संस्कृतियों के लोग इसे तमाम तरह के नाम देते हैं। कोई इसे नियति कहता है तो कोई इन यून।

पूरी फिल्म हमेशा ही एक तनी हुई भावात्मक रस्सी पर चलती है। दर्शक को ज़रा कहीं आराम नहीं मिलता और सबसे बड़ी खूबी है कि इसमें संवाद बहुत अधिक नहीं हैं। शहर के दृश्य, पृष्ठभूमि का संगीत और अभिनेताओं की भाव-भंगिमाएँ बहुत सारा काम करती हैं। हमें भी पता होता है, अतीत का मोह वर्तमान के यथार्थ एवं जटिलता को तोड़कर भविष्य की असंभाव्य कल्पनाओं की ओर नहीं जाने वाला है। उसका संतुलन यही है कि वह नहीं जाए। लेकिन उसका नहीं जाना भी जिस तनाव की रचना करता है, वह कमाल की बात है। मुझे लगता है कि सॉन्ग के जीवन-अनुभव और पहली फ़िल्म होने से भावों की सघनता इस क़िस्म के सिनेमैटिक ब्रिलिएंस के पीछे के कारक हैं।

यह फ़िल्म अपने मूल रूप में एक दृश्य माध्यम है और अगर वह दृश्यों से कहानी को कह दे, उसके लिए भाषा की ज़रूरत न पड़े, दृश्य ही उसके भाव की भाषा हो तो इससे सुंदर और कोई बात नहीं होती है।

मेरे प्रिय दृश्य इसमें दो हैं। पहला, एक कंट्रास्ट है। एक के बरक्स दूजा। न्यूयॉर्क में जब पहली बार हे संग नोरा से मिलने के लिए झिझक भरी उत्सुकता के साथ खड़ा होता है और वह उससे मिलते हुए एक पुराने दोस्त को पुकारने और उत्साह से गले लगाने के अंदाज़ में बढ़ती है। जबकि हे संग अज़ीब से संकोच वाली अवस्था में खड़ा होता है। देश काल और समाज का अंतराल वहाँ साफ़ दिखता है। नायक की झिझक उसके मन में ठहरे हुए पहले प्रेम के खिंचाव को दर्शाती है, जबकि नायिका की बेफ़िक्री उसके आगे बढ़ जाने को। जब हम उस दृश्य को देखते हैं तो लगता है, किशोर उम्र में भविष्य के सपनों के लिए देश बदलने वाली यह लड़की अब जीवन में इतना आगे बढ़ चुकी है कि बचपने वाली भावुकता और विछोह के लिए उसके पास जगह नहीं है। लेकिन अंतिम दृश्य में जब वही अलविदा दे रही है तो बावजूद इसके कि कुछ देर पहले उसने कहा है कि जब हम अलग हुए थे तो हम बच्चे थे। अब 12 साल की वह लड़की बची नहीं है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वह कभी थी नहीं। उसे मैं तुम्हारे पास छोड़कर आ गई। लेकिन विदा वाले दृश्य में हमें पता है कि वह लड़की उसके भीतर भी कहीं बची हुई है। इस दृश्य में नोरा को देखिए और पिछले दिन वाली नोरा को याद कीजिए। दोनों दृश्यों में गले लगने और गले न लग पाने वाले लोग बदल गए हैं। अब पता चलता है कि हे संग ही नहीं ठहरा हुआ है। वह आगे बढ़कर भी थमी हुई है। ऐसे बाँधने वाले संबंध के बाद भी निस्तार वर्तमान से मुक्ति में नहीं है। इसी बात को बिना संवाद के चेहरे से लेकर शरीर में जो तनाव और कंपन है, उससे दिखाया गया है। यह पूरा दृश्य किसी भी शोकगीत से बढ़कर है। इसकी सुंदरता और चमक हमें अचंभित करती है। यहाँ बैकग्राउंड स्कोर ऐसा है कि आँसू किसी लिहाज़ को नहीं मानते।

इसके अतिरिक्त मुझे वह दृश्य पसंद आया, जब एक रेस्तराँ में तीनों बैठे हैं। आर्थर का भय सामने साकार है। नहीं बचपन के लगाव के साथ चले जाने  का नहीं, भाषा की दूरी का। वह किसी ऐसी भाषा में, जिसे वह समझ नहीं सकता; अभी सपने नहीं देख रही है; बातें कर रही है। बातें ऐसी जो वह भाषा से नहीं, पर आँखों से समझ सकता है। उफ़्फ़! क्या इंटेंस दृश्य है। हे संग कहता है, मुझे पता नहीं था कि तुम्हारे पति को जानने से मुझे इतना दर्द होगा। लेकिन दर्द तो आर्थर के चेहरे पर भी है, जब वह भाषा के बिना भी जानता है कि हे संग उन सारी न हुई संभावनाओं के दुःख में कह रहा है कि क्या होता कि ऐसा होता…

जीवन यही है न? हम हमेशा ऐसे ही सोचते हैं, जो नहीं हुआ वह होता तो क्या होता। लेकिन नोरा कहती है कि क्या पता हम साथ हों, लेकिन हमारी नियति ऐसे साथ की न हो; क्योंकि आज बीस सालों बाद हम साथ हैं : एक जगह पर अलग तरीक़ों से। उस पूरी बातचीत में राहत और दर्द का ऐसा मेल है कि मेरे भीतर सेलिन सॉन्ग की आने वाली फ़िल्मों का इंतिज़ार शुरू हो गया। वैसे ग्रेटा ली, ते यू और जॉन मगारो (Greta Lee, Teo Yoo, John Magaro) का अभिनय भी कम कमाल का नहीं है। टे यू का एक सीरीज़ भी मैंने देखा है। वह अवकाश का इस्तेमाल भंगिमाओं द्वारा करते हैं। पर मुझे कहने में संकोच नहीं कि यह मूलतः ग्रेटा की फ़िल्म है। उनका अभिनय अभिनय नहीं जीवन लगता है।

लेकिन नहीं! इसे सिर्फ़ सॉन्ग और  ग्रेटा ली, ते यू और जॉन मगारो की फ़िल्म नहीं कहा जा सकता। सिनेमैटोग्राफर शबियर किर्चनर शहर की ज़िंदगी को खोल देते हैं–चाहे वह स्टैचू ऑफ़ लिबर्टी के पास फ़ेयरी की सवारी के समय विस्तृत आकाश और पानी के मेल से दृश्य को गहरी साँस लेने देते हैं या फिर खिड़की से दिखती चमकदार रोशनियों और बड़ी इमारतों के परे जीवन का एकांत सामने लाते हैं। नोरा जब राइटर्स रेज़िडेंसी में जाती है, वे दृश्य एकांत, अकेलेपन और निर्वात का कैसा जाल बुनते हैं। बिना किसी शब्द के ये दृश्य कैमरे के शब्द हैं। इसी तरह संगीतकार डैनियल रॉसन और क्रिस्टोफ़र बियर पूरी फ़िल्म में हमारे आँसुओं को राह दिखाते हैं। उनका संगीत हमें पुकारता है कि आओ, रो लो। किसी और के विछोह को अपने दिल के टूटे हुए तार जोड़ने दो और रो लो। वे ऐसे उकसाते हैं, जैसे कि हमारे आँसुओं की उनको ज़रूरत है। छूटे हुए की सारी मिठास और सारा दर्द, विछोह की दूरी और अधूरेपन में बची शाश्वतता की सारी ख़बर इस फ़िल्म के साउंडट्रैक में है।
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चलते-चलते :

• इस फ़िल्म के बारे में मैंने प्रमोद सिंह की फ़ेसबुक पोस्ट को पढ़कर जाना। उन्हीं से माँगकर देखी। उनका आभार, रुलाने के लिए।

• सेलिन सॉन्ग अपनी इस पहली फ़िल्म के साथ तुम मेरी पसंद की फ़िल्मकार हो।

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